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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०।
॥चोद्दसमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो ॥१४-६॥ [९] सनत्कुमार (देवेन्द्र) के समान प्राणत और अच्युत देवेन्द्र तक के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिसका जितना परिवार हो, उतना कहना चाहिए।अपने-अपने कल्प के विमानों की ऊँचाई के बराबर प्रासाद की ऊँचाई तथा उनकी ऊँचाई से आधा विस्तार कहना चाहिए। यावत् अच्युत देवलोक (के इन्द्र) का प्रासादावतंसक नौ सौ योजन ऊँचा है और चार सौ पचास योजन विस्तृत है। हे गौतम ! उसमें देवेन्द्र देवराज अच्युत, दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् (विषय) भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। शेष सभी वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी विचरते हैं।
विवेचन—शक्रेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के विषयभोग की उपभोगपद्धति—प्रस्तुत चार सूत्रों (सू.६ से ९ तक) में शक्रेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की विषयभोग के उपभोग की प्रक्रिया का वर्णन है। परन्तु शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र की तरह सनत्कुमारेन्द्र और माहेन्द्र, ब्रह्मलोकेन्द्र और लान्तकेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र और साहस्रारेन्द्र, आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्प के इन्द्र, देवशय्या की विकुर्वणा नहीं करते, वे सिंहासन की विकुर्वणा करते हैं; क्योंकि वे दो-दो इन्द्र, क्रमशः केवल स्पर्श, रूप, शब्द एवं मन से ही विषयोपभोग करते हैं, कायप्रवीचार ईशान-देवलोक तक ही है। सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक के इन्द्र क्रमशः स्पर्श, रूप, शब्द और मन से ही प्रवीचार कर लेते हैं। इसलिए इन सब इन्द्रों को शय्या का प्रयोजन नहीं है। सनत्कुमारेन्द्र का परिवार ऊपर बतलाया गया है। माहेन्द्र के ७० हजार सामानिक देव और दो लाख अस्सी हजार आत्मरक्षक देव होते हैं। ब्रह्मलोकेन्द्र के ६० हजार, लान्तकेन्द्र के ५० हजार, महाशुक्रेन्द्र के ४० हजार, सहस्रारेन्द्र के ३० हजार,
आनत-प्राणत कल्प के इन्द्र के २० हजार और आरण-अच्युत कल्प के इन्द्र के १० हजार सामानिक देव होते हैं । इनसे चार गुणे आत्मरक्षक देव होते हैं।
सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के विमान ६०० योजन ऊँचे हैं। इसलिए उनके प्रासादों की ऊँचाई भी ६०० योजन होती है। ब्रह्मलोक और लान्तक में ७०० योजन, महाशुक्र और सहस्रार में ८०० योजन, आनतप्राणत और आरण-अच्युतकल्प में प्रासाद ९०० योजन ऊँचे होते हैं और इन सबका विस्तार प्रासाद से आधा होता है। यथा—अच्युतकल्प में प्रासाद ९०० योजन ऊँचा होता है, तो उसका विस्तार ४८० योजन होता है। अच्युतदेवलोक में अच्युतेन्द्र दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् विचरता है।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४६
(ख) स्पर्श-रूप-शब्द-मनः प्रवीचाराःद्वयोर्द्वयोः । परेऽप्रवीचाराः। तत्त्वार्थ.४ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४६
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३२५-२३२६