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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक-६ ४०१ प्रासाद-वर्णन, (करना चाहिए) यावत्-वह दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होता है (तक जानना चाहिए) उस प्रासादावतंसक का उपरितल (ऊपरी भाग) पद्म लताओं के चित्रण से विचित्र यावत् प्रतिरूप होता है। उस प्रासादावतंसक के भीतर का भूभाग अत्यन्त सम और रमणीय होता है, इत्यादि वर्णन-वहाँ मणियों का स्पर्श होता है, यहाँ तक जानना चाहिए। वहाँ लम्बाई-चौड़ाई में आठ योजन की मणिपीठिका होती है, जो वैमानिक देवों की मणिपीठिका के समान होती है। उस मणिपीठिका के ऊपर वह एक महान् देवशय्या की विकुर्वणा करता है। उस देवशय्या का वर्णन प्रतिरूप है', यहाँ तक करना चाहिए। वहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र अपने-अपने परिवारसहित आठ अग्रमहिषियों के साथ गन्धर्वानीक और नाट्यानीक, इन दो प्रकार के अनीकों (सैन्यों) के साथ, जोर-जोर से आहत हुए (बजाए गए) नाट्य गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य (विषय) भोगों का उपभोग करता है। ७. जाहे णं ईसाणे देविंदे देवराया दिव्वाइं०? जहा सक्के तहा ईसाणे वि निरवसेसं। [७ प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करना चाहता है, तब वह कैसे करता है ? . [७ उ.] जिस प्रकार शक्र के लिए कहा है, उसी प्रकार का समग्र कथन ईशान इन्द्र के लिए करना चाहिए। ८. एवं सणंकुमारे वि, नवरं पासायवडेंसओ छज्जोयणसयाइं उठें उच्चत्तेणं तिण्णि जोयणसयाई विक्खंभेणं। मणिपेढिया तहेव अट्ठजोयणिया। तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महेगं सीहासणं विउव्वति, सपरिवारं भाणियव्वं । तत्थ णं सणंकुमारे देविंदे देवराया बावत्तरीए सामाणिय-साहस्सीहिं जाव चउहि य बावत्तरीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं बहूहिं सणंकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे महया जाव विहरति। [८] इसी प्रकार सनत्कुमार के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि उनके प्रासादावतंसक की ऊँचाई छह सौ योजन और विस्तार तीन सौ योजन होता है। आठ योजन (लम्बाई-चौड़ाई) की मणिपीठिका का उसी प्रकार वर्णन (पूर्ववत्) करना चाहिए। उस मणिपीठिका के ऊपर वह अपने परिवार के योग्य आसनों सहित एक महान् सिंहासन की विकुर्वणा करता है। (इत्यादि सब) कथन पूर्ववत् करना चाहिए। वहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देवों के साथ यावत् दो लाख ८८ हजार आत्मरक्षक देवों के साथ और सनत्कुमार कल्पवासी बहुत-से वैमानिक देव-देवियों के साथ प्रवृत्त होकर महान् गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य विषयभोगों का उपभोग करता हुआ विचरण करता है। ९. एवं जहा सणंकुमारे तहा जाव पाणतो अच्चुतो, नवंर जो जस्स परिवारो सो तस्स भाणियव्वो। पासायउच्चत्तं ज सएसु सएसु कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं, अद्धद्धं वित्थारो जाव अच्चुयस्स नव जोयणसयाइं उर्दू उच्चत्तेणं, अद्धपंचमाइं जोयणसयाई विक्खंभेणं, तत्थ णं गोयमा ! अच्चुए देविंदे देवराया दसहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरति। सेसं तं चेव०।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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