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चौदहवाँ शतक : उद्देशक-६
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चक्राकार स्थान की विकुर्वणा क्यों?—इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं कि सुधर्मा सभा जैसेभोगस्थान होते हुए भी शक्रेन्द्र चक्राकार स्थान की विकुर्वणा इसलिए करता है कि सुधर्मा सभा में जिन भगवान् की आराधना होने से उस स्थान में विषयभोग सेवन करना उनकी आशातना करना है। इसलिए शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र या सनत्कुमारेन्द्र आदि इन्द्र अपने सामानिकादि देवों के परिवार सहित चक्राकार वाले स्थान में जाते हैं । क्योंकि उनके समक्ष स्पर्श आदि विषयों का उपभोग करना अविरुद्ध है। शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र वहाँ परिवार सहित नहीं जाते। क्योंकि वे कायप्रवीचारी होने से अपने सामानिकादि परिवार के समक्ष कायपरिचारणा (काया द्वारा विषयोपभोग सेवन) करना लज्जनीय और अनुचित समझते हैं।
___ कठिन शब्दार्थ—णेमिपडिरूवगं—नेमि-चक्र के प्रतिरूप-सदृश गोलाकार । बहुसमरमणिज्जेअत्यन्त सम और रम्य । उल्लोए—उल्लोक या उल्लोच—उपरितल। अट्ठजोयणिया-लम्बाई-चौड़ाई में आठ योजन। सीहासणं विउव्वई सपरिवारं—(सनत्कुमारेन्द्र) स्वपरिवार योग्य आसनों से युक्त सिंहासन की विकुर्वणा करता है।
॥चौदहवाँ शतक : छठा उद्देशक समाप्त॥
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१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४६ २. वही, अ. वृत्ति, पत्र ६४६