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________________ चौदहवाँ शतक : उद्देशक - ५ तिरियभितिं वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ? गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे । [२१ प्र.] भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिरछे पर्वत का या तिरछी भींत को एक बार उल्लंघन करने अथवा बार-बार उल्लंघन ( प्रलंघन ) करने में समर्थ है ? [२१ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । २२. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरियपव्वतं जाव पल्लंघेत्तए वा ? हंता, पभू । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० । । ॥ चोइसमे सए : पंचमो उद्दसेओ समत्तो ॥ १४.५ ॥ [२२ प्र.] भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महामुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को (एक बार ) उल्लंघन एवं ( बार - बार ) प्रलंघन करने में समर्थ है ? ३९७ [२ उ.] हाँ, समर्थ है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है— यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते विवेचन—महर्द्धिक देव का उल्लंघन - सामर्थ्य बाह्य ( भवधारणीय शरीर से अतिरिक्त) पुद्गलों को ग्रहण किये बिना कोई भी महर्द्धिक देव मार्ग में आनेवाले तिरछे पर्वत या पर्वतखण्ड अथवा भींत आदि का उल्लंघन या प्रलंघन नहीं कर सकता। बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके ही उन्हें उल्लंघन - प्रलंघन कर सक है । कठिन शब्दार्थ — महेसक्खे—महासौख्यसम्पन्न । बाहिरए पोग्गले — भवधारणीय शरीर के अतिरिक्त बाह्य पुद्गलों को । अपरियाइत्ता — बिना ग्रहण किये। उल्लंघेत्तए — एक बार लांघने में । पल्लंघेत्तए बार-बार लांघने में, पार करने में। ॥ चौदहवाँ शतक : पंचम उद्देशक समाप्त ॥ १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४३-६४४ २. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र ६४४ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३१९
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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