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[१९] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए ।
२०. वाणमंतर - जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा ।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[२०] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों तक असुरकुमारों के समान कहना चाहिए ।
विवेचन — अनिष्ट, इष्टानिष्ट एवं इष्ट स्थानों के अधिकारी — प्रस्तुत सूत्रों में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में से अनिष्ट, इष्ट या इष्टानिष्ट शब्दादि स्थानों में से किनको कितने स्थानों का अनुभव होता है, इसका निरूपण किया गया है।
नैरयिकों को दस अनिष्टस्थानों का अनुभव – नैरयिकों को अनिष्ट शब्द आदि ५ इन्द्रिय-विषयों का अनुभव प्रतिक्षण होता रहता है। उनकी अप्रशस्त विहायोगति या नरकगति रूप अनिष्ट गति होती है । नरक में रहने रूप अथवा नरकायु रूप अनिष्ट स्थिति होती है। शरीर का बेडोल होना अनिष्ट लावण्य होता है । अपयश और अपकीर्ति के रूप में नारकों को अनिष्ट यश कीर्ति का अनुभव होता है । वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशमं से उत्पन्न हुआ नैरयिक जीवों का उत्थानादि वीर्य विशेष अनिष्ट निन्दित होता है ।
देवों का दस इष्ट स्थानों का अनुभव - चारों जाति के देवों का इष्ट शब्द आदि दसों स्थानों का अनुभव होता है ।
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों को दस इष्टानिष्ट स्थानों का अनुभव — पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों को इष्ट एवं अनिष्ट दोनों प्रकार के दसों स्थानों का अनुभव होता है।
एकेन्द्रिय जीवों के छह इष्टानिष्टस्थानों का अनुभव — एकेन्द्रिय जीवों को शब्द, रूप, रस और गन्ध AII अनुभव नहीं होता, क्योंकि उन्हें श्रोत्रादि द्रव्येन्द्रियाँ प्राप्त नहीं हैं। वे उपर्युक्त १० स्थानों में से शेष ६ स्थानों काही अनुभव करते हैं । वे शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के क्षेत्र में उत्पन्न हो सकते हैं और उनके साता और असाता दोनों का उदय सम्भव है। इसलिए उनमें इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के स्पर्शादि होते हैं । यद्यपि एकेन्द्रिय जीव स्थावर हैं, इसलिए उनमें स्वाभाविक रूप से गमन-गति सम्भव नहीं है; तथापि उनमें परप्रेरित
होती है। वह शुभाशुभ रूप होने से इष्टानिष्ट गति कहलाती है। मणि में इष्ट लावण्य होता है और पत्थर में अनिष्ट लावण्य होता है । इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों में इष्टानिष्ट लावण्य होता है। स्थावर होने से एकेन्द्रिय जीवों में उत्थानादि प्रकट रूप में दिखाई नहीं देते, किन्तु सूक्ष्म रूप में उनमें उत्थानादि हैं । पूर्वभव में अनुभव किए हुए उत्थानादि के संस्कार के कारण भी उनमें उत्थानादि होते हैं ओर वे इष्टानिष्ट होते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों को क्रमश: जिह्वा, नासिका और नेत्र इन्द्रिय मिल जाने से उन्हें क्रमशः इष्टानिष्ट रस, गन्ध और रूप का अनुभव होता है।
महर्द्धिक देव का तिर्यक्पर्वतादि-उल्लंघन - प्रलंघन - सामर्थ्य - असामर्थ्य
२१. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महेसक्खे बाहिरिए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू तिरियपव्वयं वा
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४३
२. वियाहपण्णत्तिसुत्तं ( मू.पा.टि.) पृ. ६७०-६७१ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४३