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चौदहवाँ शतक : उद्देशक - ५
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[११] असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा—इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार - पराक्रम ।
१२. एवं जाव थणियकुमारा ।
[१२] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए ।
१३. पुढविकाइया छट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा – इट्ठाणट्ठा फासा, इट्ठणिट्ठा गती एवं जाव परक्कमे ।
[१३] पृथ्वीकायिक जीव (इन दस स्थानों में से ) छह स्थानों का अनुभव करते रहते हैं । यथा— (१) इष्ट अनिष्ट स्पर्श, (२) इष्टअनिष्ट गति, यावत् (३) इष्टानिष्ट स्थिति, (४) इष्टानिष्ट लावण्य, (५) इष्टानिष्ट यश: कीर्ति और (६) इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार- पराक्रम ।
१४. एवं जाव वणस्सइकाइया ।
[१४] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिए।
१५. बेइंदिया सत्तट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा – इट्ठाणिट्ठा रसा, सेसं जहा एगिंदियाणं ।
[१५] द्वीन्द्रिय जीव (दस में से) सात स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा—इष्टानिष्ट रस इत्यादि, शेष एकेन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए ।
१६. इंदिया णं अट्ठट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा – इट्ठाणिट्ठा गंधा, सेसं. जहा वेइंदियाणं ।
[१६] त्रीन्द्रिय जीव (दस में से) आठ स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा— इष्टानिष्ट गन्ध इत्यादि, शेष द्वन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए ।
१७. चउरिंदिया नवट्ठाणाइं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा – इट्ठाणिट्ठा रूवा, सेसं जहा तेइंदियाणं ।
[१७] चतुरिन्द्रिय जीव (दस में से) नौ स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा— इष्टानिष्ट रूप इत्यादि शेष त्रीन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए।
१८. पंचेन्द्रियतिरिक्खजोणिया दसट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा - इट्ठाणिट्ठा सद्दा जाव परक्कमे ।
[१८] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा— इष्टानिष्ट शब्द यावत् इष्टानिष्ट उत्थान - कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार- पराक्रम ।
१९. एवं मणुस्सा वि ।