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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १२. एवं जाव थणियकुमारा। [१२] स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार कहना चाहिए। १३. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव। [१३] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए।
विवेचन—निष्कर्ष—प्रस्तुत सात सूत्रों में मेघ द्वारा स्वाभाविक और भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों द्वारा बिना मौसम के तीर्थंकर भगवन्तों के पंचकल्याणक महोत्सवों के निमित्त से स्वैच्छिक वृष्टि करने का वर्णन किया है। शक्रेन्द्र द्वारा वृष्टि करने की प्रक्रिया का भी वर्णन किया गया है।
इस वर्णन पर से 'ईश्वर की इच्छा होती है, तब वह वर्षा बरसाता है, इस मान्यता का निराकरण हो जाता है। तथ्य यह है कि वृष्टि या तो मेघ द्वारा मौसम पर स्वाभाविक होती है अथवा देवेच्छाकृत होती है अथवा देवेच्छाकृत होती है। अथवा पर्जन्य इन्द्र को भी कहते हैं।'
कठिन शब्दार्थ—पज्जण्णे—पर्जन्य-मेघ। वुट्टिकायं—वृष्टिकाय-जलवृष्टिसमूह। काउकामेकरने का इच्छुक। कहमियाणिं-किस प्रकार से। किंपत्तियं—किस निमित्त (प्रयोजन) से, किसलिए। णणुप्पायमहियासु-केवलज्ञान की उत्पत्ति-महोत्सवों पर। कालवासी-काल-समय पर (प्रावृट-वर्षा ऋतु में) बरसने वाला। पर्जन्य का अर्थ इन्द्र करने पर वह भी तीर्थंकरजन्म-महोत्सव आदि पर बरसाता है। ईशानदेवेन्द्रादि चतुर्विधदेवकृत तमस्काय का सहेतुक निरूपण
१४. जाहे णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुकायं काउतुकामे भवति से कहमियाणिं पकरेति ?
गोयमा ! ताहे चेव णं ईसाणे देविंदे देवराया अब्भिंतरपरिसाए देवे सद्दावेति, तए णं ते अब्भिंतरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा एवं जहेव सक्कस्स जाव तए णं ते आभियोगिका देवा सद्दाविया समाणा तमुकाइए देवे सद्दावेंति, तए णं तमुकाइया देवा सद्दाविया समाणा तमुकायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुकायं पकरेति।
[१४ प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करना चाहता है, तब किस प्रकार करता है ?
[१४ उ.] गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करना चाहता है, तब आभ्यन्तर परिषद् के देवों को बुलाता है और फिर वे बुलाए हुए आभ्यन्तर परिषद् के देव मध्यम परिषद के देवों को बुलाते हैं, इत्यादि सब वर्णन ; यावत्—'तब बुलाये हुए वे आभियोगिक देव तमस्कायिक देवों को बुलाते हैं, और फिर वे समाहूत तमस्कायिक देव तमस्काय करते हैं; यहाँ तक शक्रेन्द्र (द्वारा वृष्टिकाय प्रक्रिया) के समान जानना चाहिए। हे गौतम ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करता है।
१५. अस्थि णं भंतें ! असुरकुमारा वि देवा तमुकायं पकरेंति ?
१. भगवती: अ. वृत्ति, पत्र ६३५ २. (क) भगवती. अ. वृ., पत्र ६३५-६३६
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२९२