________________
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[११ प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्त्रक नैरयिक, क्या नैरयिक का आयुष्य बाँधते हैं, यावत् क्या देवायुष्य
बाँधते हैं ?
३६८
[११ उ.] गौतम ! वे नैरयिक का आयुष्य नहीं बाँधते, वे तिर्यञ्च का आयुष्य बाँधते हैं, मनुष्य का आयुष्य भी बाँधते हैं, (किन्तु) देवायुष्य नहीं बांधते ।
१२. अणंतरपरंपरअणुववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं प० पुच्छा।
गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव नो देवाउयं पकरेंति ।
[१२ प्र.] भगवन् ! अनन्तर - परम्परानुपपन्नक नैरयिक, क्या नैरयिक का आयुष्य बाँधते हैं ? इत्यादि ( पूर्ववत्) प्रश्न ।
[१२ उ.] गौतम ! वे नैरयिक का आयुष्य नहीं बाँधते, यावत् ( तिर्यञ्च का, मनुष्य का या) देव का आयुष्य नहीं बाँधते ।
१३. एवं जाव वेमाणिया, नवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोवन्नगा चत्तारि वि आउयाइं पकरेंति । सेसं तं चेव ।
[१३] इसी प्रकार वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकों में आयुष्यबन्ध का कथन करना चाहिए।) विशेषता यह है कि परम्परोपपन्नक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्य नारकादि, चारों प्रकार का अर्थात् चारों में से किसी भी एक का आयुष्य बाँधते हैं। शेष (सभी कथन) पूर्ववत् (करना चाहिए।)
विवेचन — निष्कर्ष — अनन्तरोपपन्नक और अनन्तर - परम्परानुपपन्नक जीव नरकादि चारों गतियों का आयुष्य नहीं बाँधते; क्योंकि उस अवस्था में उस प्रकार के कोई अध्यवसाय (परिणाम) नहीं होते 'परिणामे बन्ध:' इस सिद्धान्तानुसार उस समय चारों गति के जीवों के आयुष्यबन्ध नहीं होता। परम्परोपपन्नक नैरयिक जीव एवं देव अपना आयुष्य छह मास शेष रहते तिर्यञ्च या मनुष्य का आयुष्यबन्ध करते हैं। परम्परोपपन्नक मनुष्य और तिर्यञ्च तो चारों ही गति का आयुष्य बाँधते हैं। अपने आयु के तृतीयादि भाग में, या कोई-कोई छह महीने शेष रहते आयुष्य बाँधते हैं ।'
चौवीस दण्डकों में अनन्तर - निर्गतादि- प्ररूपणा
१४. [१] नेरइयाणं भंते ! किं अणंतरनिग्गया परंपरनिग्गया अणंतरपरंपरअनिग्गया ?
गोमा ! नेरइया णं अणंतरनिग्गया वि जाव अणंतरपरंपरअनिग्गया वि।
[१४-१ प्र.] भगवन् ! क्या नारक जीव अनन्तर - निर्गत हैं, परम्पर-निर्गत हैं या अनन्तर-परम्परअनिर्गत हैं ?
[१४-१ उ.] गौतम ! नैरयिक अनन्तर - निर्गत भी होते हैं, परम्पर-निर्गत भी होते हैं और अनन्तर - परम्पर १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३३