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चौदहवाँ शतक : उद्देशक-१
३६७ अणंतरपरंपरअणुववन्नगा। से तेण?णं जाव अणुववनगा वि।
[८-२ प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा है कि नैरयिक यावत् (अनन्तरो०, परम्परो०) और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक भी हैं ?
_ [८-२ उ.] गौतम ! जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी प्रथम समय ही हुआ है (उत्पत्ति में एक समय का भी व्यवधान नहीं पड़ा), वे (नैरयिक) अनन्तरोपपन्नक (कहलाते हैं)। जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी दो, तीन आदि समय हो चुके हैं, (अर्थात्-प्रथम समय के सिवाय द्वितीयादि समय हो गए हैं,) वे (नैरयिक) परम्परोपपन्नक (कहलाते) हैं और जो नैरयिक जीव नरक में उत्पन्न होने के लिए (अभी)विग्रहगति में चल रहे हैं, वे (नैरयिक) अन्तर-परम्परानुपपन्नक (कहलाते) हैं। इस कारण से हे गौतम ! नैरयिक जीव यावत् अनन्तर-परम्परानुपपन्नक भी हैं।
९. एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [९] इसी प्रकार (यह पाठ) निरन्तर यावत् वैमानिक (तक कहना चाहिए)।
विवेचन–अनन्तरोपपन्नक—जिनकी उत्पत्ति में समय आदे का अन्तर (व्यवधान) नहीं है, अर्थात् जिन्हें उत्पन्न हुए प्रथम समय हुआ है, वे परम्परोपपन्नक—जिन्हें उत्पन्न हुए दो-तीन आदि समय हो गए हों, वे।अनन्तर-परम्परानुपपन्नक—जिनकी उत्पत्ति न तो भव के प्रथम समय में हुई है और न ही द्वितीयादि समयों में, ऐसे विग्रहगति-समापपन्नक जीव अनन्तर-परम्परानुपपन्नक कहलाते हैं। नैरयिक जीव जब विग्रहगति में होते हैं, तब पूर्वोक्त दोनों प्रकार की उत्पत्ति का अभाव होता है। अनन्तरोपपन्नकादि चौवीस दण्डकों में आयुष्यबंध-प्ररूपणा
१०. अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति ? तिरिक्ख-मणुस्स-देवाउयं पकरेंति ? .
गोयमा ! मो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव नो देवाउयं पकरेंति। । [१० प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक, नैरयिक का आयुष्य बाँधते हैं, अथवा तिर्यञ्च का, मनुष्य का या देव का आयुष्य बाँधते हैं ? ।
[१० उ.] गौतम ! वे नैरयिक का आयुष्य नहीं बाँधते, यावत् (तिर्यञ्च का, मनुष्य का एवं) देव का आयुष्य भी नहीं बाँधते।
११. परंपरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति, जाव देवाउयं पकरेंति ?
गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३३