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________________ ३६६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समय में समश्रेणी द्वारा नीचे जाता है। दूसरे समय में पश्चिम दिशा में जाता है और तीसरे समय में तिरछे वाव्ययकोण में रहे अपने उत्पत्तिस्थान में जाकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार तीन समय की विग्रहगति होती है। यही नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों (एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय) की शीघ्रगति और शीघ्रगति का विषय कहा गया है। एकेन्द्रिय जीवों की चार समय की विग्रहगति—इस प्रकार समझनी चाहिए—जीव की गति श्रेणी के अनुसार होती है। अत: त्रसनाडी से बाहर रहा हुआ कोई एकेन्द्रिय जीव जब दूसरे भव में दूसरे समय में लोक के मध्य भाग में प्रविष्ट होता है। तीसरे समय में ऊँचा (ऊर्ध्वलोक में) जाता है और चौथे समय में त्रसनाडी से निकल कर दिशा में नियत-उत्पत्तिस्थान में जाता है। यह बात सामान्यतया अधिकांश एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा कही गई है; और एकेन्द्रिय जीव बहुधा इसी प्रकार गति करते हैं, अन्यथा एकेन्द्रिय जीवों की पांच समय की विग्रहगति भी सम्भव है। वह इस प्रकार—पहले समय में त्रसनाडी से बाहर, वह अधोलोक की विदिशा से दिशा की ओर जाता है। दूसरे समय में लोक के मध्य भाग में प्रवेश करता है। तीसरे समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है। चौथे समय में वहाँ से दिशा की ओर जाता है और पांचवें समय में विदिशा में रहे हुए उत्पत्तिस्थान में जाता है। इस प्रकार पांच समय की विग्रहगति भी कही गई है। कठिन शब्दार्थ-सीहा-शीघ्र, आउंटेजा—सिकोडे। उण्णिमिसियं-खुली हुई। विक्खिण्णंखोली हुई। चौवीस दण्डकों में अनन्तरोपपन्नकादि. प्ररूपणा ८.[१] नेरइया णं भंते! किं अणंतरोववनगा, परंपरोक्वनगा, अणंतरपरंपरअणुववनगा वि? गोयमा ! नेरइया अणंतरोववनगा वि, परंपरोववनगा वि, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि। [८-१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक अनन्तरोपपत्रक हैं, परम्परोपपन्नक हैं, अथवा अनन्तरपरम्परानुपपन्नक हैं ? [८-१ प्र.] गौतम ! नैरयिक अनन्तरोपन्नक भी हैं, परम्परोपपत्रक भी हैं, और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक भी हैं। [२] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ जाव अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि? गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयोववनगा ते णं नेरइया अणंतरोववनगा, जे णं नेरइया अपढसमयोववन्नगा ते णं नेरइया परंपरोववन्नगा, जे णं नेरइया विग्गहगतिसमाववन्नगा ते णं नेरइया १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३२ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२७९-२२८० २. वही, हिन्दी विवेचन भा. ५, पृ. २२८० ३. विदिसाउ दिसि पढमे, बीए पइ सरइ नाडिमशंमि। उड्ढं तइए तुरिए उ नीइ विदिसं तु पंचमए॥ -अ. वृत्ति, पत्र ६३२ ४. भगवती. (हिन्दीविवेचन), भा. ५, पृ. २२८०
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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