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चौदहवां शतक : उद्देशक-१ अनिर्गत भी होते हैं।
[२] से केणठेणं जाव अणिग्गता वि?
गोयमा ! जे णं नरेइया पढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया, जे णं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया परंपरनिग्गया, जे णं नेरइया विग्गहगतिसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतरपरंपरणिग्गया। से तेणढेणं गोयमा ! जाव अणिग्गता वि।
_ [१४-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक अनन्तर-निर्गत भी होते हैं, यावत् अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत भी होते हैं ?
[१४-२ उ.] गौतम ! जिन नैरयिकों को नरक से निकले प्रथम समय ही है, वे अनन्तर-निर्गत हैं, जो नैरयिक अप्रथम (प्रथम समय-व्यतिरिक्त समय—द्वितीयादि समय) में निर्गत हुए (निकले) हैं, वे ‘परम्परनिर्गत' हैं और जो नैरयिक विग्रहगति-समापन्नक हैं, वे 'अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत' हैं । इसी कारण, हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि नैरयिक जीव, यावत् (अनन्तर-निर्गत भी हैं, परम्पर-निर्गत भी हैं और) अनन्तर-परम्परअनिर्गत भी हैं। .
१५. एवं जाव वेमाणिया। [१५] इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए।
विवेचन–अनन्तर-निर्गत—एक भव से निकल कर दूसरा भव प्राप्त होने के प्रथम समयवर्ती जीव। परम्पर-निर्गत—जिन जीवों को एक भव से निकल कर भवान्तर को प्राप्त हुए दो-तीन आदि समय हो चुके हैं, वे। अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत—जो एक भव से निकल कर भवान्तर में उत्पत्तिस्थान को प्राप्त नहीं हुए, अभी जो विग्रहगति में ही हैं, ऐसे जीव।
चौवीस ही दण्डकों के जीव अनन्तर-निर्गत, परम्पर-निर्गत और अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत, तीनों प्रकार के होते हैं। अनन्तरनिर्गतादि चौवीस दण्डकों में आयुष्यबन्ध-प्ररूपणा
१६..अणंतरनिग्गया णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति, जाव देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति। [१६ प्र.] भगवन् ! अनन्तरनिर्गत नैरयिक जीव, क्या नारकायुष्य बांधते हैं यावत् देवायुष्य बांधते हैं ? [१६ उ.] गौतम ! वे न तो नरकायुष्य बांधते हैं, न तिर्यञ्चायु, न मनुष्यायु और न ही देवायुष्य बांधते हैं। १७. परंपरनिग्गया णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं० पुच्छा।
गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेंति, जाव देवाउयं पि पकरेंति। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३३