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चौदहवां शतक : प्राथमिक
३६१ की दिव्य भोगोपभोग-प्रक्रिया का वर्णन है। सातवें 'संश्लिष्ट' उद्देशक में भगवान् द्वारा गौतम स्वामी को इसी भव के बाद अपने समान सिद्धबुद्ध-मुक्त होने का आश्वासन दिया गया है। तत्पश्चात् अनुत्तरौपपातिक देवों की जानने-देखने की शक्ति का तथा छह प्रकार के तुल्य के स्वरूप का पृथक्-पृथक् विश्लेषण किया गया है। फिर अनशनकर्ता अनगार द्वारा मूढता-अमूढतापूर्वक आहाराध्यवसाय की चर्चा की गई है।अन्त में लवसप्तम और अनुत्तरौपपातिक देव-स्वरूप की सहेतुक प्ररूपणा की गई है। आठवें उद्देशक में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी एवं अलोकपर्यन्त परस्पर अबाधान्तर की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् शालवृक्ष आदि के भावी भवों की, अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्यों की आराधकता की, अम्बड को दो भवों के बाद मोक्षप्राप्ति की, अव्याबाध देवों की अव्याबाधता की, सिर काटकर कमण्डलु में डालने की शक्रेन्द्र की वैक्रियशक्ति की तथा जृम्भक देवों के स्वरूप, भेद, गति एवं स्थिति की प्ररूपणा की गई है। नौवें उद्देशक में भावितात्मा अनगार की ज्ञान-सम्बन्धी और प्रकाशपुद्गलस्कन्ध-सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। तदनन्तर चौवीस दण्डकों में पाए जाने वाले आत्त-अनात्त, इष्टानिष्ट आदि पुद्गलों की महर्द्धिक देव की भाषासहस्रभाषणशक्ति की, सूर्य के अन्वर्थ तथा उसकी प्रभा आदि के शुभत्व की परिचर्चा की गई है। अन्त में श्रामण्यपर्यायसुख की देवसुख के साथ तुलना की गई है। दसवें उद्देशक में केवली एवं सिद्ध द्वारा छद्मस्थादि को तथा केवली द्वारा नरकपृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक को तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को जानने-देखने की शक्ति की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत शतक में कुल मिला कर देव, मनुष्य, अनगार, केवली, सिद्ध, नैरयिक, तिर्यञ्च आदि जीवों की आत्मिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार की शक्तियों का रोचक वर्णन है।'
१. वियाहपत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त).भा. २, पृ. ६५८ से ६८८ तक