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________________ तेरहवाँ शतक : उद्देशक - ७ काया कथञ्चित् अरूपी भी मानी जाती है । या सचित्त भी है, अचित्त भी जीवित अवस्था में काया चैतन्य से युक्त होने के कारण सचित्त है और मृतावस्था में उसमें चैतन्य का अभाव होने से अचित्त भी है । काया जीव भी है, अजीव भी — विवक्षित उच्छ्वास आदि प्राणों से युक्त होने से औदारिकादि शरीरों की अपेक्षा से काया जीव है और मृत होने पर उच्छ्वासादि प्राणों से रहित हो जाने पर वह अजीव भी है। जीवों के भी काय होता है, अजीवों के भी जीवों के काय (शरीर) होता है यह तो प्रत्यक्षसिद्ध है । मिट्टी के लेप आदि से बनाई गई शरीर की आकृति अजीवकाय भी होती है । ३३९ काया पहले पीछे भी और वर्तमान में भी— जीव का सम्बंध होने से पूर्व भी काया होती है, जैसेमेंढक का मृत कलेवर । उसका भविष्य में जीव के साथ सम्बन्ध होने पर वह जीव का काय बन जाता है । वर्तमान में जीव के द्वारा उपचित किया जाता हुआ भी काय होता है। जैसे—जीवित शरीर । काय-समय व्यतीत हो जाने पर अर्थात् जीव के द्वारा कायरूप से उपचय करना बन्द हो जाने पर भी काय रहता है, जैसे मृत कलेवर । काया का भेदन पहले, पीछे और वर्तमान में भी— जिस घड़े में भविष्य में मधु रखा जाएगा, उसे मधुघट कहा जाता है। इसी प्रकार जीव के द्वारा कायरूप से ग्रहण करने के समय से पूर्व भी काय होता है। उस में प्रतिक्षण पुद्गलों का चय- अपचय होने से उस द्रव्यकाय का भेदन होता है। जीव के द्वारा कायारूप से ग्रहण करते समय भी काया का भेदन होता है, जैसे—बालू से भरी हुई मुट्ठी में से उसके कण प्रतिक्षण झड़ते रहते हैं, वैसे ही काया में से प्रतिक्षण पुद्गल झड़ते रहते हैं। जिस घड़े में घी रखा गया था, उसमें से घी निकाल लेने पर भी उसे 'घी का घड़ा' कहते हैं, वैसे ही काय - समय व्यतीत हो जाने पर भी भूतभाव की अपेक्षा से उसे काय कहा जाता है। भेदन होना पुद्गलों का स्वभाव है, इसलिए उस भूतपूर्व काय का भी भेदन होता है। चूर्णिकार के अनुसार व्याख्या - चूर्णिकार ने 'काय' शब्द का अर्थ — 'समस्त पदार्थों का सामान्य चयरूप शरीर' किया है। उनके अनुसार आत्मा भी काय है, अर्थात् प्रदेश- संचयरूप है तथा काय प्रदेशसंचयरूप होने से आत्मा से भिन्न भी है। पुद्गलस्कन्धों की अपेक्षा से काय रूपी भी है और जीव-धर्मास्तिकायादि की अपेक्षा से काय अरूपी भी है। जीवित शरीर की अपेक्षा से काय सचित्त भी है और अचेतन संचय की अपेक्षा से काय अचित्त भी है । उच्छ्वासादि-युक्त अवयव - संचय की अपेक्षा से काय जीव है और उच्छ्वासादि अवयव - संचय के अभाव में काय अजीव भी है। जीवों के काय का अर्थ है— जीवराशि और अजीवों के काय का अर्थ है- परमाणु आदि की राशि | इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से काय से सम्बन्धित शेष पदों की व्याख्या समझ लेनी चाहिए। १. भगवती. अ. वृति, पत्र ६२३ २. (क) वही, पत्र ६२३ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन ) भा. ५ पृ. २२५३ ३. भगवती अ. वृत्ति, पत्र ६२३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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