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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र काय के सात प्रकारों का अर्थ-औदारिककाय—उदार अर्थात् प्रधान स्थूल पुद्गलस्कन्धरूप होने से औदारिक तथा उपचीयमान होने से काय कहलाता है। यह पर्याप्तक जीव के होता है। औदारिकमिश्र
औदारिकशरीर कार्मणशरीर के साथ मिश्र हो, तब औदारिकमिश्र होता है, यह अपर्याप्तक जीव के होता है। वैक्रियकाय–पर्याप्तक देवों आदि के होता है। वैक्रियमिश्र—वैक्रियशरीर कार्मण के साथ मिश्रित हो तब वैक्रियमिश्र होता है। यह अप्रतिपूर्ण वैक्रियशरीर वाले देव आदि के होता है। आहारक—आहारकशरीर निष्पन्न होने पर आहारककाय कहलाता है। आहारकमिश्र—आहारकशरीर का परित्याग करके औदारिक शरीर ग्रहण करने के लिए उद्यत मुनिराज के औदारिकशरीर के साथ मिश्रता होने से आहारकमिश्रकाय होता है। कार्मणकाय-विग्रहगति में अथवा केवलिसमुद्घात के समय कार्मणकायशरीर होता है। मरण के पांच प्रकार
२३. कतिविधे णं भंते ! मरणे पन्नत्ते ?
गोयमा ! पंचविधे मरणे पन्नत्ते, तं जहा—आवीचियमरणे ओहिमरणे आतियंतियमरणे बालमरणे पंडियमरणे।
[२३ प्र.] भगवन् ! मरण कितने प्रकार का कहा गया है ?
[२३ उ.] गौतम ! मरण पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है—(१) आवीचिकमरण, (२) अवधिमरण, (३) आत्यन्तिकमरण, (४) बालमरण और (५) पण्डितमरण।।
विवेचन–पञ्चविध मरण के लक्षण-मरण की परिभाषा-आयुष्य पूर्ण होने पर आत्मा का शरीर से वियुक्त होना (छूटना) अथवा शरीर से प्राणों का निकल जाना तथा बन्धे हुए आयुष्यकर्म के दलिकों का क्षय होना 'मरण' कहलाता है। वह मरण पांच प्रकार का है। उनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) आवीचिकमरण-वीचि (तरंग) के समान प्रतिसमय भोगे हुए अन्याय आयुष्यकर्मदलिकों के उदय के साथसाथ क्षय रूप अवस्था आवीचिकमरण है; अथवा जिस मरण में वीचि-विच्छेद अविद्यमान रहे अर्थात्विच्छेद न हो-आयुष्यकर्म की परम्परा चालू रहे, उसे आवीचिमरण कहा जा सकता है। (२) अवधिमरणअवधि (मर्यादा)-सहित मरण। नरकादिभवों के कारणभूत वर्तमान आयुष्यकर्मदलिकों को भोग कर (एक बार) मर जाता है, यदि पुन: उन्हीं आयुष्यकर्मदलिकों को भोग कर मृत्यु प्राप्त करे, तब अवधिमरण कहलाता है। उन द्रव्यों की अपेक्षा से पुनर्ग्रहण की अवधि तक जीव मृत रहता है, इस कारण वह अवधिमरण कहलाता है। परिणामों की विचित्रता के कारण कर्मदलिकों को ग्रहण करके छोड़ देने के बाद पुनः उनका ग्रहण करना सम्भव होता है। (३) आत्यन्तिकमरण—अत्यन्तरूप से मरण आत्यन्तिकमरण है। अर्थात्-नरकादि आयुष्यकर्म के रूप में जिन कर्मदलिकों को एक बार भोग कर जीव मर जाता है, उन्हें फिर कभी नहीं भोगकर मरना। उन कर्मदलिकों की अपेक्षा से जीव का मरण आत्यन्तिकमरण कहलाता है।(४) बालमरण-अविरत (व्रतरहित)
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२४