________________
३३८
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाने पर भी काय का भेदन होता है। काया के सात भेद
२२. कतिविधे णं भंते ! काये पन्नत्ते ?
गोयमा ! सत्तविधे काये पन्नत्ते, तं जहा—औरालिए औरालियमीसए वेउव्विए वेउव्वियमीसए आहारए आहारयमीसए कम्मए।
[२२ प्र.] भगवन् ! काय किंतने प्रकार का कहा गया है ?
[२२ उ.] गौतम ! काय सात प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) औदारिक, (२) औदारिकमिश्र, (३) वैक्रिय, (४) वैक्रियमिश्र, (५) आहारक, (६) आहारमिश्र और (७) कार्मण।
विवेचन—प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १५ से २२ तक) में विभिन्न पहलुओं से काया के सम्बन्ध में शंकासमाधान प्रस्तुत किए गए हैं।
काय आत्मा भी और आत्मा से भिन्न भी—काय कथंचित् आत्मरूप भी है, क्योंकि काय के द्वारा कृत . कर्मों का अनुभव (फलभोग) आत्मा को होता है। दूसरे के द्वारा किये हुए कर्म का अनुभव दूसरा नहीं कर सकता। यदि ऐसा होगा तो अकृतागम (नहीं किये हुए कर्म के अनुभव-भोग) का प्रसंग आएगा। किन्तु यदि काया को आत्मा से एकान्ततः अभिन्न माना जाएगा तो काया का एक अंश से छेदन करने पर आत्मा के छेदन होने का प्रसंग आएगा, जो कभी सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त आत्मा को काया से अभिन्न मानने पर शरीर के जल जाने पर आत्मा भी जल कर भस्म हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में परलोकगमन करने वाला कोई आत्मा नहीं रहेगा। परलोक के अभाव का प्रसंग होगा। इसलिए काया को आत्मा से कथंचित् भिन्न माना गया। काया का आंशिक छेदन करने पर आत्मा को उसका पूर्ण संवेदन होता है, इस दृष्टि से काया कथंचित् आत्मरूप भी माना जाता है। जैसे सोना और मिट्टी, लोहे का पिण्ड और अग्नि अथवा दूध और पानी दोनों भिन्न-भिन्न होने पर भी मिल जाने पर दोनों अभिन्न-से प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भी काया के साथ संयोग होने से भिन्न होते हुए भी कथंचित् अभिन्न माना जाता है। यही कारण है कि काया को छूने पर आत्मा को उसका संवेदन होता है। काया द्वारा किये गए कार्यों का फल भवान्तर में आत्मा को भोगना (वेदन करना) पड़ता है। इसलिए काया को आत्मा से कथंचित् अभिन्न माना गया है। कुछ आचार्यों ने माना है कि कामर्णकाय की अपेक्षा से आत्मा काया है, क्योंकि कार्मणशरीर और संसारी आत्मा परस्पर एकरूप होकर रहते हैं तथा औदारिक आदि शरीरों की अपेक्षा से काया आत्मा से भिन्न है, क्योंकि शरीर छूटते ही आत्मा पृथक् हो जाती है, इस दृष्टि से काया से आत्मा की भिन्नप्ता सिद्ध होती है।
काया रूपी भी है, अरूपी भी है-औदारिक आदि शरीरों की स्थूलरूपता दृश्यमान होने से काया रूपी है और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म एवं अदृश्यमान होने से उसकी अपेक्षा से अरूपित्व की विवक्षा करने पर
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२३