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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
भेदन होता है, या मनन-समय व्यतीत हो जाने पर मन का भेदन होता है ?
। [१३ उ.] गौतम ! जिस प्रकार भाषा के भेदन के विषय में कहा गया, उसी प्रकार मन के भेदन के विषय में कहना चाहिए। मन के चार प्रकार
१४. कतिविधे णं भंते ! मणे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे मणे पण्णत्ते, तं जहा-सच्चे, जाव असच्चामोसे। [१४ प्र.] भगवन् ! मन कितने प्रकार का कहा गया है ?
[१४ उ.] गौतम ! मन चार प्रकार का कहा गया है। यथा—(१) सत्यमन, (२) मृषामन, (३) सत्यमृषा-(मिश्र) मन और (४) असत्यामृषा (व्यवहार) मन।
विवेचन—प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १० से १४ तक) में भाषा के समान मन के विषय में शंका उठा कर उसी प्रकार समाधान किया गया है। अर्थात्-मन सम्बन्धी समस्त सूत्रों का विवेचन भाषा-सम्बन्धी सूत्रों के समान जानना चाहिए।
मन : स्वरूप और उसका भेदन—मनोद्रव्य का जो समुदाय मनन-चिन्तन करने में उपकारी होता है तथा जो मनःपर्याप्ति नामकर्म के उदय से सम्पादित है, उसे मन कहते हैं। वास्तव में मन एक ही है। मन का भेदन मन का विदलन मात्र ही समझना चाहिए। वर्तमान युग की भाषा में कहा जा सकता है कि मन जब चिन्तन, मनन, स्मरण, निर्णय, निदिध्यासन, संकल्प, विकल्प आदि भिन्न-भिन्न रूप में करता है, तब उसका विदलन होता है।
मणिजमाणे : अर्थ–मनन करते हुए या मनन के समय। काय : आत्मा है या अन्य ? रूपी-अरूपी है, सचित्त-अचित्त है, जीवाजीव है ?
१५. आया भंते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा ! आया वि काये, अन्ने वि काये। [१५ प्र.] भगवन् ! काय (शरीर) आत्मा है, अथवा अन्य (आत्मा से भिन्न) है ? [१५ उ.] गौतम ! काय आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न (अन्य) भी है। १६. रूविं भंते ! काये पुच्छा ? गोयमा ! रूविं पि काये, अरूविं पि काये।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२२ ___ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२५२ २. वही, भाग ५ पृ. २२५१