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तेरहवां शतक : उद्देशक-६
३२५ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उजाणाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्था गमणाए।
[२३] श्रमण भगवान् महावीर द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उदायन राजा हृष्ट-तुष्ट एवं आनन्दित हुए। उदायन नरेश ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और फिर उसी अभिषेक-योग्य पट्टहस्ती पर आरूढ होकर महावीर स्वामी के पास से, मृगवन उद्यान से निकले और (सीधे) वीतिभय नगर जाने के लिए प्रस्थान किया। ____ २४. तए णं तस्स उदायणस्स रण्णो अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था-"एवं खलु अभीयीकुमारे ममं एगे पुत्ते इढे कंते जाव किमंग पुण पासणयाए ? तं जति णं अहं अभीयीकुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि तो णं अभीयीकुमारे रज्जे य रटे य जाव जणवए य माणुस्सएसु य कामभोएसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टिस्सइ, तं नो खलु मे सेयं अभीयकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइत्तए। सेयं खलु मे णियगं भाइणेजं केसिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवतो जाव पव्वइत्ताए।" एवं संपेहेति, एवं सं० २ त्ता जेणेव वीतीभये नगरे तेणेव उवागच्छति, उवा० २ त्ता वीतिभयं नगरं मझमझेणं० जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० २ त्ता आभिसेक्कंहत्थिं ठवेति, आ० ठ० २ आभिसेक्काओ हत्थीओ पच्चोरुभइ,
आ० प० २ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति, उवा० २ सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, नि० २ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ को० स० एवं वयासी—खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीतीभयं नगरं सब्भिंतरबाहिरियं जाव पच्चप्पिणंति।
_ [२४] तत्पश्चात् (मार्ग में ही) उदायन राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् (मनोगत संकल्प) उत्पन्न हुआ—"वास्तव में अभीचि कुमार मेरा एक ही (इकलौता) पुत्र है, वह मुझे अत्यन्त इष्ट एवं प्रिय है; यावत् उसका नाम-श्रवण भी दुर्लभ है तो फिर उसके दर्शन दुर्लभ हों, इसमें तो कहना ही क्या ? अतः यदि मैं अभीचि कुमार को राजसिंहासन पर बिठा कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित हो जाऊं तो अभीचि कुमार राज्य और राष्ट्र में, यावत् जनपद में और मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित एवं अत्यधिक तल्लीन होकर अनादि, अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिरूप संसार-अटवी में परिभ्रमण करेगा। अत: मेरे लिए अभीचि कुमार को राज्यारूढ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास, मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होना श्रेयस्कर नहीं है। अपितु मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं अपने भानने केशी कुमार को राज्यारूढ करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास प्रव्रजित हो जाऊँ।' उदायननृप इस प्रकार अन्तर्मन्थन (सम्प्रेक्षण) करता हुआ वीतिभय नगर के निकट आया। वीतिभय नगर के मध्य में होता हुआ अपने राजभवन के बाहर की उपस्थानशाला में आया और अभिषेक योग्य पट्टहस्ती को खड़ा किया। फिर उस पर से नीचे उतरा। तत्पश्चात वह राजसभा में सिंहासन के पास आया और पूर्वदिशा की ओर मुख करके उक्त सिंहासन पर बैठा। तदनन्तर अपने कोटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें इस प्रकार का आदेश दिया—देवानुप्रियो ! वीति नगर