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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
लोक का बहु समभाग — यह चौदह रज्जू-परिमाण वाला लोक कहीं बढ़ा हुआ है तो कहीं घटा हुआ है । इस प्रकार की वृद्धि और हानि से रहित भाग को 'बहुसम' कहते हैं । इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में दो क्षुल्लक (लघुतम) प्रत्तर हैं। ये सबसे छोटे हैं। ऊपर के क्षुद्र प्रतर से प्रारम्भ होकर ऊपर ही ऊपर प्रतर वृद्धि होती है और नीचे के क्षुल्लक प्रतर से नीचे-नीचे की ओर प्रतर- वृद्धि होती है । शेष प्रतरों की अपेक्षा ये प्रतर छोटे हैं, क्योंकि इनकी लम्बाई-चौड़ाई एक रज्जू - परिमित है । ये दोनों प्रतर तिर्यक्लोक के मध्यवर्ती हैं।
३१.४
लोक का विग्रह - विग्रहिक — इस समग्र लोक की आकृति पुरुष - शरीराकार मानी जाती है। कमर पर हाथ रख कर खड़े हुए पुरुष के दोनों हाथों की कुहनियों (कूर्पर) का स्थान वक्र (टेढ़ा ) होता है। इसी प्रकार इस लोक में पंचम ब्रह्मलोक नामक देवलोक के पास लोक का कूर्परस्थानीय (कुहनी जैसा) वक्रभाग है । इसे ही 'विग्रहकण्डक' कहते हैं, अथवा जहाँ प्रदेशों की वृद्धि या हानि होने से वक्रता होती है, उस भाग को भी विग्रहकण्डक कहते हैं । यहाँ लोकरूप शरीर का वक्रतायुक्त भाग है। यह (विग्रहकण्डक) प्राय: लोकान्त में है ।
लोक-संस्थाननिरूपण : तेरहवाँ लोक-संस्थानद्वार
६९. किंसंठिए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ?
गोयमा ! सुपतिट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेट्ठा वित्थिण्णे, मज्झे जहा सत्तमसए पढमुद्देसे ( स. ७ उ. १ सु. ५) जाव अंतं करेंति ।
[६९ प्र.] भगवन् ! इस लोक का संस्थान (आकार) किस प्रकार का कहा गया है ?
[६९ उ.] गौतम ! इस लोक का संस्थान सुप्रतिष्ठिक के आकार का कहा गया है। यह लोक नीचे विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त (संकीर्ण) है, इत्यादि वर्णन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक (सू. ५ ) के अनुसार, यावत्—संसार का अन्त करते हैं—यहाँ तक कहना चाहिए।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्र में लोक आकार के विषय में सप्तम शतक के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है।
लोक की आकृति और परिमाण — नीचे एक औंधा (उल्टा) मिट्टी का सकोरा रखा जाए, उसके ऊपर एक सीधा और ऊपर एक उल्टा सकोरा रखा जाए। इसका जो आकार बनता है, वही लोक का संस्थान (आकार) है। इस आकृति से यह स्पष्ट है कि लोक नीचे से चौड़ा है, बीच में संकीर्ण हो जाता है, कुछ ऊपर फिर चौड़ा होता जाता है और सबसे ऊपर फिर संकीर्ण हो जाता है । वहाँ लोक की चौड़ाई सिर्फ एक रज्जु रह
है। इस प्रकार 'संसार का अन्त करते हैं', यहाँ तक जो लोक सम्बन्धी विस्तृत विवेचन भगवतीसूत्र के सप्तम शतक, प्रथम उद्देशक, पंचम सूत्र में किया गया है, उसे यहाँ भी जान लेना चाहिए।
१. भगवती अ. वृत्ति, पत्र ६१६
२. भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२२४
३. भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२२५