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तेरहवां शतक : उद्देशक-४
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विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में धर्मास्तिकायादि पर किसी व्यक्ति की बैठने, लेटने आदि की अशक्यता को कूटगारशाला के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है।
कठिन शब्दार्थ—एयंसि—इस पर। चक्किया-समर्थ हो सकता है। आसइत्तए-बैठने या ठहरने में। सइत्तए—सोने में या शयन करने में। चिट्ठित्तए–खड़ा रहने या ठहरने में। निसीइत्तए नीचे बैठने में। तुयट्टित्तए-करवट बदलने में या लेटने में। पलीवेज्जा—जला दे। अन्नमनघडत्ताए—एक दूसरे के साथ एकमेक (एकरूप) होकर । पदीवलेस्सासु-दीपकों की प्रभाओं पर। बहुसम, सर्वसंक्षिप्त, विग्रह-विग्रहिक लोक का निरूपण : बारहवाँ बहुसमद्वार
६७: कहि णं भंते ! लोए बहुसमे ? कहि णं भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पन्नत्ते ?
गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डगपयरेसु, एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविग्गहिए पन्नत्ते।
[६७ प्र.] भगवन् ! लोक का बहु-समभाग कहाँ है ? (तथा) हे भगवन् ! लोक का सर्वसंक्षिप्त भाग कहाँ कहा गया है ? . [६७ उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभा (नरक-) पृथ्वी के ऊपर के और नीचे के क्षुद्र (लघु) प्रतरों में लोक का बहुसम भाग है और यहीं लोक का सर्वसंक्षिप्त (सबसे संकीर्ण) भाग कहा गया है।
६८. कहि णं. भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पन्नत्ते ? गोयमा ! विग्गहकंडए, एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पन्नत्ते।
[६८ प्र.] भगवन् ! लोक का विग्रह-विग्रहित भाग (लोकरूप शरीर का वक्रतायुक्त भाग) कहाँ कहा गया है ?
[६८ उ.] गौतम ! जहाँ विग्रह-कण्डक (वक्रतायुक्त अवयव) है, वहीं लोक का विग्रह-विग्रहिक भाग कहा गया है।
विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ६७-६८) में बारहवें बहुसमद्वार के माध्यम से लोक के बहुसमभाग एवं विग्रह-विग्रहिक भाग के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई है।
कठिन शब्दार्थ-बहुसमे—अत्यन्त सम, प्रदेशों की वृद्धि-हानि से रहित भाग। सव्वविग्गहिएसर्वसंक्षिप्तभाग, सब से छोटा या संकीर्ण भाग। विग्गह-विग्गहिए—विग्रह (वक्रतायुक्त)-विग्रहिक(शरीर का भाग)। विग्गहकंडए-विग्रहकण्डक वक्रतायुक्त अवयवा
१. भगवतीसूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. १०, पृ. ७०९ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६१६
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२२३