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तेरहवां शतक : उद्देशक-४
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५६. जत्थ णं भंते ! एगे पोग्गलऽस्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽथिकाय?
एवं जहा जीवऽस्थिकायपएसे तहेव निरवसेसं। __ [५६ प्र.] भगवन् ! जहाँ पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ?
[५६ उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार जीवास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार समस्त कथन करना चाहिए।
५७.[१] जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलऽस्थिकायपएसा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मऽत्थिकाय? सिय एक्को, सिय दोण्णि।
[५७-१ प्र.] भगवन् ! जहाँ पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ?
[५७-१ उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय के) कदाचित् एक या कदाचित् दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। [२] एवं अहम्मऽत्थिकायस्स वि। [५७-२] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेश के विषय में कहना चाहिए। [३] एवं आगासऽस्थिकायस्स वि। [५७-३] इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के प्रदेश के विषय में जानना चाहिए। [४] सेसं जहा धम्मऽथिकायस्स। [५७-४] शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के समान समझना चाहिए। ५८. [१] जत्थ णं भंते ! तिन्नि पोग्गलत्थि० तत्थ केंवतिया धम्मऽत्थिकाय? सिय एक्को, सिय दोन्नि, सिय तिन्नि।
[५८-१ प्र.] भगवन् ! जहाँ पुद्लास्तिकाय के तीन प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? |
[५८-१ उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय का) कदाचित् एक, कदाचित् दो या कदाचित् तीन प्रदेश अवगाढ होते हैं।
[२] एवं अहम्मऽस्थिकायस्स वि। [५८-२] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के विषय में भी कहना चाहिए। [३] एवं आगासऽत्थिकायस्स वि।