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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[२] एवं अहम्मत्थिकायपएसा वि। [५४-२] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में जानना चाहिए। [३] केवतिया आगासस्थिकाय० ? नत्थेक्को वि। [५४-३ प्र.] (भगवन् ! वहाँ ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [५४-३ उ.] (वहाँ) एक प्रदेश भी (उसका) अवगाढ नहीं होता। [४] केवतिया जीवऽत्थि० ? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा। जति ओगाढा अणंता। [५४-४ प्र.] (भगवन् ! वहाँ) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ?
[५४-४ उ.] (गौतम ! वे) कदाचित् अवगाढ होते हैं एवं कदाचित् अवगाढ नहीं होते। यदि अवगाढ होते हैं तो अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं।
[५] एवं जाव अद्धासमया। [५४-५] इसी प्रकार यावत् अद्धासमय तक कहना चाहिए। ५५.[१] जत्थ णं भंते ! एगे जीवऽस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽस्थि० ? एक्को ।
[५५-१ प्र.] भगवन् ! जहाँ जीवास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ?
[५५-१ उ.] (गौतम ! वहाँ उसका) एक प्रदेश अवगाढ होता है। [२] एवं अहम्मऽस्थिकाय०। [५५-२] इसी प्रकार (वहाँ) अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में जानना चाहिए। [३] एवं आगासऽत्थिकायपएसा वि। [५५-३] आकाशास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। [४] केवतिया जीवऽस्थि० ? अणंता। [५५-४ प्र.] (भगवन् ! वहाँ) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [५५-४ उ.] (गौतम ! वहाँ उसके) अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं। [५] सेसं जहा धम्मऽत्थिकायस्स।