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[४] केवतिएहिं जीवत्थिकायपए० ?
अणतेहिं ।
[४९-४ प्र.] (भगवन् ! वह) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [४९-४ उ. ] (गौतम ! वह उसके ) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । [५] केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं० ?
अणतेहिं ।
[४९-५] (भगवन् ! वह) पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [४९-५ उ. ] ( गौतम ! वह उसके ) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है।
[६] केवतिएहिं अद्धासमएहिं० ?
सिय पुट्ठे सिय नो पुट्ठे । जई पुट्ठे नियमा अनंतेहिं ।
[४९-६ प्र.] ( भगवन् ! वह) अद्धाकाल के कितने समयों से स्पृष्ट होता है ?
[४९-६ उ.] (गौतम ! वह) कदाचित् स्पृष्ट होता है, और कदाचित् नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है तो
( वह उसके ) नियमत: अनन्त समयों से ( स्पृष्ट होता है ।)
५०. [ १ ] अधम्मऽत्थिकाए णं भंते ! केव० धम्मत्थिकाय० ?
असंखेज्जेहिं ।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[५०-१ प्र.] भगवन् ! अधर्मास्तिकाय द्रव्य धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ?
[५०-१ उ.] (गौतम ! वह उसके ) असंख्यात प्रदेशों से ( स्पृष्ट होता है ।) [ २ ] केवतिएहिं अहम्मत्थि० ?
एक्केण वि ।
[५०- २ प्र.] भगवन् ! वह अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ?
[५०-२ उ.] गौतम ! वह (अधर्मास्तिकायिक द्रव्य) उसके ( अधर्मास्तिकाय के) एक भी प्रदेश से ( स्पृष्ट नहीं होता ।)
[३] सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ।
[५०- ३] शेष सभी ( द्रव्यों के प्रदेशों) से स्पर्शना के विषय में धर्मास्तिकाय के समान ( जानना
चाहिए ।)
५१. एवं एतेणं गमएणं सव्वे वि सट्टाणए नत्थेक्केण वि पुट्ठा। परट्ठाणए आदिल्लएहिं तीहिं असंखेज्जेहिं भाणियव्वं, पच्छिल्लएसु तिसु अणंता भाणियव्वा जाव अद्धासमयो त्ति—जाव केवतिएहिं