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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक-४ २८३ आश्रयी वह असंख्यात प्रदेश वाली है, जबकि अलोक-आश्रयी अनन्त प्रदेश वाली है, इत्यादि शेष सब वर्णन आग्नेयी के समान कहना चाहिए। विशेषता यह है कि वह (विमला दिशा) रुचकाकार है। २२. एवं तमा वि। . [२२] तमा (अधो) दिशा के विषय में भी (समग्र वर्णन इसी प्रकार कहना चाहिए)। विवेचन—दिशाओं के गुणनिष्पन्न नाम उनकी आदि, उद्गम आदि-प्रदेश प्रदेशविस्तार, उत्तरोत्तर वृद्धि विस्तार, प्रदेशसंख्या, उसका अन्त, आकार आदि के विषय में शंका-समाधान प्रस्तुत ७ सूत्रों (१६ से २२ सू. तक) में प्रतिपादित किया गया है। दसों दिशाओं के गुणनिष्पन्न नाम क्यों?— (१) ऐन्द्री—पूर्वदिशा का अधिष्ठाता देव इन्द्र होने से, (२) आग्नेयी-अग्निकोण का स्वामी 'अग्नि' देवता होने से। (३) नैऋती-नैऋत्यकोण का स्वामी नैऋति होने से। (४) याम्या—दक्षिणदिशा का अधिष्ठाता यम होने से। (५) वारुणी—पश्चिमदिशा का अधिष्ठाता वरुण होने से। (६) वायव्य वायुकोण का अधिष्ठाता वायुदेव होने से। (७) सौम्या उत्तर दिशा का स्वामी सोम (चन्द्रमा) होने से। (८) ऐशानी-ईशानकोण का अधिष्ठाता ईशान देव होने से। इस प्रकार अपने-अपने अधिष्ठाता देवों के नाम पर से ही इन दिशाओं और विदिशाओं के ये गुणनिष्पन्न नाम प्रचलित हैं। ऊर्ध्वदिशा को विमला इसलिए कहते हैं कि ऊपर अन्धकार नहीं है, इस कारण वह निर्मल है। अधोदिशा गाढ अन्धकारयुक्त होने से 'तमा' कहलाती है, तमा रात्रि को कहते हैं, यह दिशा भी रात्रि तुल्य होने से तमा है।' उत्पत्तिस्थान आदि-इन दसों दिशाओं के उत्पत्तिस्थान आठ रुचकप्रदेश हैं। चारों दिशाएँ मूल में द्विप्रदेशी हैं और आगे-आगे दो-दो प्रदेशों की वृद्धि होती जाती है। विदिशाएँ मूल में एक प्रदेश वाली निकली हैं और अन्त तक एकप्रदेशी ही रहती हैं। इन के प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती। ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा मूल में चतुष्पदेशी निकली हैं और अन्त तक चतुष्पदेशी ही रहती हैं। इनमें भी वृद्धि नहीं होती। लोक-पंचास्तिकाय-स्वरूपनिरूपण : सप्तम प्रवर्त्तनद्वार २३. किमियं भंते ! लोए त्ति पवुच्चई ? गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति पवुच्चइ, तं जहा-धम्मऽत्थिकाए, अधम्मऽत्थिकाए, जाव पोग्गलऽस्थिकाए। [२३ प्र.] भगवन् ! यह लोक क्या कहलाता है—लोक का स्वरूप क्या है ? [२३ उ.] गौतम ! पंचास्तिकाय का समूहरूप ही यह लोक कहलाता है। वे पंचास्तिकाय इस प्रकार हैं—(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, यावत् (आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय) पुद्गलास्तिकाय। १. (क) भगवती. श. ६० उ. १, सू. ६-७ में देखिये। (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २१८७ २. वही (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २१८८ tho |
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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