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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
गए हैं। शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। (संख्यात विस्तृत आवासों में ) उत्पाद, उद्वर्त्तना और सत्ता, इन तीनों के आलापकों में चार लेश्याएँ कहनी चाहिए ।
[ ३ ] एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वा जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता |
[५-३] असंख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता इतनी ही है कि पूर्वोक्त तीनों आलापकों में (संख्यात के बदले ) 'असंख्यात' कहना चाहिए तथा 'असंख्यात अचरम कहे गए हैं' यहाँ तक कहना चाहिए।
६. केवतिया णं भंते ! नागकुमारावास० ?
एवं जाव थणियकुमारा, नवरं जत्थ जत्तिया भवणा ।
[६ प्र.] नागकुमार (इत्यादि भवनवासी) देवों के कितने लाख आवास कहे गए हैं ?
[६ उ.] (गौतम ! ) पूर्वोक्त रूप से ( नागकुमार से लेकर ) स्तनितकुमार तक (उसी प्रकार) कहना चाहिए। विशेष इतना है कि जहाँ जितने लाख भवन हों, वहाँ उतने लाख भवन कहने चाहिए ।
विवेचन — भवनवासी देवों के आवास, विस्तार आदि की प्ररूपणा — भवनवासी देवों के भवनों की संख्या— असुरकुमारों के ६४ लाख, नागकुमारों के ८४ लाख, सुपर्णकुमारों के ७२ लाख, वायु कुमारों के ९६ लाख तथा द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और स्तनितकुमार, इन प्रत्येक युगल के ७६ - ७६ लाख भवन होते हैं।
भवनवासी देवों के आवास (भवन) भी संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत होते हैं । उनके तीन प्रकार के आवासों का परिमाण इस प्रकार कहा गया है
जंबूदीवसमा खलु भवणा, जे हुंति सव्वखुड्डागा ।
संखेज्जवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेज्जा ॥
अर्थात्—भवनपति देवों के जो सबसे छोटे आवास (भवन) होते हैं, वे जम्बूद्वीप के बराबर होते हैं । मध्यम आवास संख्यात योजन- विस्तृत होते हैं; और शेष अर्थात् — बड़े आवास असंख्यात योजन- विस्तृत होते हैं।
१.. चउसट्टी असुराणं नागकुमाराण होई चुलसीई ।
बावत्तरि कणगाणं, वाउकुमाराण छण्णउई ॥
दीवदिसाउदहीणं बिज्जुकुमारिंदथणियमग्गीणं ।
जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ - भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०३
२. वही, पत्र ६०३