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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक-२ २६५ __ वेद आदि की विशेषता : दो ही वेद-वेदों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो ही वेद होते हैं, नपुंसकवेद नहीं होता। इसलिए कहा गया है—'दो वेद वाले उत्पन्न होते हैं।' असंज्ञी भी उद्वर्त्तते हैं—ऐसा कथन इसलिए किया गया है कि असुरकुमार से लेकर ईशान देवलोक तक के देव पृथ्वीकायादि असंज्ञी जीवों में भी उत्पन्न होते अवधिज्ञानी-दर्शनी नहीं उद्वर्तते-असुरकुमार आदि देवों से च्यवकर निकले (उद्वृत्त) हुए जीव तीर्थंकर आदि पद को प्राप्त नहीं करते और न तीर्थंकरादि की तरह अवधिज्ञान, अवधिदर्शन लेकर उद्वृत्त होते (निकलते) हैं। क्रोधादि कषाय-असुरकुमार आदि देवों में क्रोध, मान और माया कषाय के उदय वाले जीव तो कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते, किन्तु लोभकषाय के उदय वाले जीव तो सदैव होते हैं । इसलिए कहा गया है कि लोभकषायी संख्यात कहे गये हैं। चार लेश्याएँ-असुरकुमारादि भवनवासी देवों में चार लेश्याएँ (कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या) होती हैं, इसलिए इनके तीनों (उत्पादन, उद्वर्तन और सत्ता) आलापकों में प्रत्येक चार-चार लेश्याएँ कहनी चाहिए।' वाणव्यन्तर देवों की आवाससंख्या, विस्तार, उत्पाद, उद्वर्त्तना और सत्ता की प्ररूपणा ७. केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेजा वाणमंतरावाससयसहस्सा पनत्ता। [७ प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के कितने लाख आवास कहे गये हैं ? [७ उ.] गौतम ! वाणव्यन्तर देवों के असंख्यात लाख आवास कहे गए हैं। ८. ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? गोयमा ! संखेजवित्थडा, नो असंखेजवित्थडा। [८ प्र.] भगवन् ! वे (वाणव्यन्तरावास) संख्येय विस्तृत हैं अथवा असंख्येय विस्तृत हैं ? [८ उ.] गौतम ! वे संख्येय विस्तृत हैं, असंख्येयविस्तृत नहीं हैं। ९. संखेजेसुणं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववजंति ? एवं जहा असुरकुमाराणं संखेजवित्थडेसु तिण्णि गमा तहेव भाणियव्वा वाणमंतराण वि तिण्णि गमा। __ [९ प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तरदेवों के संख्येय विस्तृत (असंख्यात लाख) आवासों में एक समय में कितने वाणव्यन्तर देव उत्पन्न होते हैं। [९ उ.] गौतम ! जिस प्रकार असुरकुमार देवों के संख्येय विस्तृत आवासों के विषय में तीन आलापक १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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