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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक-२ २६३ ४. ते णं भंते ! किं संखेज्जवित्थडा असंखेजवित्थडा ? गोयमा ! संखेजवित्थडा वि असंखेजवित्थडा वि। [४ प्र.] भगवन्! असुरकुमार देवों के आवास संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ? [४ उ.] गौतम ! (वे) संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। विवेचन—प्रस्तुत तीन सूत्रों (२ से ४ तक) में भवनपति देवों के भेद, आवास एवं उनके विस्तार का प्रतिपादन किया गया है। संख्यात-असंख्यात-विस्तृत भवनपति-आवासों में विविध-विशेषण-विशिष्ट असुरकुमारादि से सम्बन्धित उनपचास प्रश्नोत्तर ५.[१] चोयट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एगसमयेणं केवतिया असुरकुमारा उववज्जति ? जाव केवतिया तेउलेस्सा उववजंति ? केवतिया कण्हपक्खिया उववजंति ? एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं, नवरं दोहिं वेदेहिं उववजंति, नपुंसगवेयगा न उववजंति। सेसं तं चेव। [५-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों में एक समय में कितने असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, यावत् तेजोलेश्यी उत्पन्न होते हैं ? _ [५-१ उ.] (गौतम ! ) रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में किए गए प्रश्नों के समान (यहाँ भी) प्रश्न करना चाहिए और उसका उत्तर भी उसी प्रकार समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ दो वेदों (स्त्रीवेद और पुरुषवेद) सहित उत्पन्न होते हैं । नपुंसकवेदी उत्पन्न नहीं होते। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। __[२] उव्वद्वंतगा वि तहेव, नवरं असण्णी उव्वटुंति ओहिनाणी ओहिदंसणी य ण उव्वटुंति, सेसं तं चेव। पन्नत्तएसु तहेव, नवरं संखेजगा इत्थिवेदगा पन्नत्ता। एवं पुरिसवेदगा वि। नपुंसगवेदगा नत्थि। कोहकसायी,सिय अस्थि, सिय नत्थि; जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पन्नत्ता। एवं माण० माय० । संखेज्जा लोभकसायी पन्नत्ता। सेसं तं चेव तिसु वि गमएसु चत्तारि लेस्साओ भाणियव्वाओ। [५-२] उद्वर्त्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिए। विशेषता यह है कि (यहाँ से) असंज्ञी भी उद्वर्त्तना करते हैं। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी (यहाँ से) उद्वर्त्तना नहीं करते। शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। सत्ता के विषय में जिस प्रकार पहले (प्रथमोद्देशक में) बताया गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि वहाँ संख्यात स्त्रीवेदक हैं और संख्यात पुरुषवेदक हैं, नपुंसकवेदक (बिल्कुल) नहीं हैं। क्रोधकषायी कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। इसी प्रकार मानकषायी और मायाकषायी के विषय में कहना चाहिए। लोभकषायी संख्यात कहे
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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