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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक-१ २५३ रत्नप्रभा के असंख्यातविस्तृत नरकावासों में नारकों की उत्पत्ति, उद्वर्त्तना और सत्ता की संख्या से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर ९. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवइया नेरतिया उववजंति ? १, जाव केवइया अणागारोवउत्ता उववजंति ? २-३९। गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसणं असंखेजा नेरइया उववजति १। एवं जहेव संखेजवित्थडेसु तिण्णि गमगा [सु० ६-७-८] तहा असंखेजवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा भाणियव्वा। नवरं असंखेजा, भाणियव्वा, सेसंतं चेव जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता ४९।"नाणत्तं लेस्सासु",लेस्साओजहा पढमसए (स० १ उ०५ सु० २८)।नवरं संखेजवित्थडेसु वि असंखेजवित्थडेसु वि ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा उबट्टावेयव्वा, सेसं तं चेव। [९ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में (१) एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं; (२-३९) यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? . [९ उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों के विषय में (सू. ६-७-८ में उत्पाद, उद्वर्त्तना और सत्ता) ये तीन आलापक (गमक) कहे गए हैं, उसी प्रकार असंख्यात योजन वाले नरकों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिए। इनमें विशेषता यह है कि 'संख्यात' के बदले 'असंख्यात' कहना चाहिए। शेष सब यावत् 'असंख्यात अचरम कहे गए हैं', यहाँ तक पूर्ववत् कहना चाहिए। इनमें लेश्याओं में नानात्व (विभिन्नता) है। लेश्यासम्बन्धी कथन प्रथम शतक (उ. ५ सू. २८) के अनुसार कहना चाहिए तथा विशेष इतना ही है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तार वाले नारकावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी संख्यात ही उद्वर्तन करते हैं, ऐसा कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए। विवेचन—असंख्यातयोजन विस्तृत नारकावासों में उत्पादन, उद्वर्त्तन और सत्ता की प्ररूपणासंख्यात योजन विस्तारवाले नारकावासों में नारकों की उत्पत्ति, उद्वर्त्तना और सत्ता (विद्यमानता), इन तीनों आलापकों की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तृत नरकों के नारकों की उत्पत्ति आदि तीनों का कथन करना चाहिए। संख्यात के बदले यहाँ 'असंख्यात' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी की संख्यात उद्वर्तना—क्योंकि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तीर्थंकर आदि ही उद्वर्त्तन करते हैं और वे स्वल्प होते हैं, इसलिए इन दोनों के उद्वर्तन के विषय में 'संख्यात' ही कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए, जो सुगम है। १. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २१४१ (ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्र ६०० २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६००
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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