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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
लेश्यासम्बन्धी कथन — इस विषय में प्रारम्भ की दो नरकपृथ्वियों की अपेक्षा से, तृतीय आदि नरकपृथ्वियों की लेश्याओं में नानात्व होता है, अतः यहाँ कहा गया है कि लेश्याओं का कथन जिस प्रकार प्रथम शतक के पंचम उद्देशक, सू. २८ में है, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए।
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शर्कराप्रभादि छह नरकपृथ्वियों के नारकावासों की संख्या तथा संख्यात - असंख्यातविस्तृत नरकों में उत्पत्ति, उद्वर्त्तना तथा सत्ता की संख्या का निरूपण
१०. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवइया निरयावास० पुच्छा ।
गोयमा ! पणुवीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नता ।
[१० प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी में कितने नारकावास कहे हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[१० उ.] गौतम ! (उसमें ) पच्चीस लाख नारकावास कहे गए हैं।
११. ते णं भंते ! किं संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ?
एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि। नवरं असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णइ, सेसं तं
चेव ।
[११ प्र.] भगवन् ! वे नारकावास क्या संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, अथवा असंख्यात योजन विस्तार
वाले ?
[११ उ.] गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभा के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि उत्पाद, उद्वर्त्तना और सत्ता, इन तीनों ही आलापकों में 'असंज्ञी' नहीं कहना चाहिए। शेष सभी (वक्तव्यता) पूर्ववत् ( कहनी चाहिए)।
१२. वालुयप्पभाए णं० पुच्छा ।
गोयमा ! पन्नरस निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता । सेसं जहा सक्करप्पभाए ।
साओ जहा पढमसए (स०१ उ०५ सु० २८ ) ।
[१२ प्र.] भगवन् ! बालुकाप्रभापृथ्वी में कितने नारकावास कहे गए हैं ?
[१२ उ.] गौतम ! बालुकाप्रभा में पन्द्रह लाख नारकावास कहे गए हैं। शेष सब कथन शर्कराप्रभा के समान करना चाहिए। यहाँ लेश्याओं के विषय में विशेषता है। लेश्या का कथन प्रथम शतक के पंचम उद्देशक के समान कहना चाहिए ।
" णाणत्तं लेसासु",
१३. पंकप्पभाए० पुच्छा ।
गोयमा ! दस निरयावाससयसहस्सा ० । एवं जहा सक्करप्पभाए। नवरं ओहिनाणी ओहिदंसणी यन उव्वट्टंति, सेसं तं चेव ।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६००