________________
२५२
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र स्पर्शेन्द्रियोपयोगयुक्त नैरयिक संख्यात कहे गए हैं। (३४) नो-इन्द्रियोपयोगयुक्त नारक, असंज्ञी नारक जीवों के समान (कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते) । (३५-३९) मनोयोगी यावत् अनाकारोपयोग वाले नैरयिक संख्यात कहे गए हैं। (४०) अनन्तरोपपन्नक नैरयिक कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते ; यदि होते हैं तो असंज्ञी जीवों के समान (जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं।) (४१) परम्परोपपन्नक नैरयिक संख्यात होते हैं। जिस प्रकार अनन्तरोपन्नक के विषय में कहा गया, उसी प्रकार (४२) अनन्तरावगाढ, (४४) अनन्तराहारक और (४६) अनन्तरपर्याप्तक के विषय में कहना चाहिए। (४३,४५, ४७,४८,४९) जिस प्रकार परम्परोपपन्नक का कथन किया गया है, उसी प्रकार परम्परावगाढ, परम्पराहारक, परम्परपर्याप्तक, चरम और अचरम (का कथन करना चाहिए।)
विवेचन—पूर्वोक्त दो सूत्रों में बताया गया था कि रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में विविध विशेषणविशिष्ट नैरयिक एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं और कितने उद्वर्त्तते हैं ?, इस सूत्र में बताया गया है कि वहाँ सत्ता में कितने नैरयिक विद्यमान रहते हैं ?
__ अनन्तरोपपन्नक—परम्परोपन्नक आदि शब्दों के अर्थ—जिन नारकों को उत्पन्न हुए अभी एक समय ही हुआ है, उन्हें 'अनन्तरोपपन्नक' और जिन्हें उत्पन्न हुए दो, तीन आदि 'समय' हो चुके हैं, उन्हें परम्परोपपन्नक कहते हैं। किसी एक विवक्षित क्षेत्र में प्रथम समय में रहे हुए (अवगाहन करके स्थित) जीवों को अनन्तरावगाढ और विवक्षित क्षेत्र में द्वितीय आदि समय में रहे हुए जीवों को परम्परावगाढ कहते हैं। आहार ग्रहण किये हुए जिन्हें प्रथम समय हुआ है, वे अनन्तराहारक और जिन्हें द्वितीय आदि समय हो गये हैं, उन्हें परम्पराहारक कहते हैं। जिन जीवों को पर्याप्त हुए प्रथम समय ही है, वे अनन्तरपर्याप्तक और जिन्हें पर्याप्त हुए द्वितीयादि समय हो चुके हैं, वे परम्परपर्याप्तक कहलाते हैं। जिन जीवों का नारकभव अन्तिम है, अथवा जो नारकभव के अन्तिम समय में वर्तमान हैं, वे चरम नैरयिक और इनसे विपरीत को अचरम नैरयिक कहते हैं।
__ असंज्ञी आदि नैरयिक कदाचित् क्यों?—जो असंज्ञी तिर्यञ्च या मनुष्य मर कर नरक में नैरयिक रूप से उत्पन्न होते हैं, वे अपर्याप्त-अवस्था में कुछ काल तक असंज्ञी होते हैं, (फिर संज्ञी हो जाते हैं) ऐसे नैरयिक अल्प होते हैं। इसलिए कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी में असंज्ञी कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। इसी प्रकार मानकषायोपयुक्त, मायाकषायोपयुक्त, लोभकषायोपयुक्त और नो-इन्द्रियोपयुक्त तथा अनन्तरोपपन्नक अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक नैरयिक कदाचित होते हैं। इसलिए कहा गया है कि ये नैरयिक कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते।
'शेष' जीव बहुत होते हैं—उपर्युक्त नैरयिकों के अतिरिक्त शेष नैरयिक जीव सदा प्रभूत संख्या में रहते हैं, इसलिए उन्हें 'संख्यात' कहना चाहिए।'
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६००
(ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २१४७ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०० ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६००