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तेरहवां शतक : उद्देशक-१
२५१ केवतिया नेरइया पण्णता ? १, केवइया काउलेस्सा जाव केवइया अणागारोवउत्ता पण्णत्ता ? २३९, केवइया अणंतरोववन्नगा पन्नत्ता? ४०, केवइया परंपरोववनगा पन्नता? ४१, केवइया अणंतरोगाढा पन्नत्ता ? ४२, केवइया परंपरोगाढा पन्नत्ता ? ४३, केवइया अणंतराहारा पन्नत्ता ? ४४, केवइया परंपराहारा पन्नत्ता ! ४५, केवइया अणंतरपज्जत्ता पन्नत्ता ? ४३, केवइया परंपरपज्जत्ता पन्नत्ता? ४७, केवइया चरिमा पन्नत्ता ? ४८, केवइया अचरिमा पन्नत्ता? ४९।।
गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु संखेजा नेरइया पन्नत्ता १। संखेज्जा काउलेस्सा पन्नत्ता २। एवं जाव संखेज्जा सन्नी पन्नत्ता ३-५। असपणी सिय अत्थि सिय नत्थि; जदि अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पन्नत्ता ६। संखेजा भवसिद्धिया पन्नत्ता ७। एवं जाव संखेज्जा परिग्गहसन्नोवउत्ता पन्नत्ता ८२१। इत्थिवेदगा नत्थि २२।पुरिसवेदगा नत्थि २३।संखेज्जा नपुंसगवेदगा पण्णत्ता २४। एवं कोहकसायी वि २५ । माणकसाई जहा असण्णी २६ । एवं जाव लोभकसायी २७-२८ । संखेज्जा सोतिंदियोवउत्ता पन्नत्ता २९। एवं जाव फासिंदियोवउत्ता ३०-३३। नोइंदियोवउत्ता जहा असण्णी ३४।संखेज्जा मणजोगी पन्नत्ता ३५ । एवं जाव अणागारोवउत्ता ३६-३९। अणंतरोववन्नगा सिय अस्थि सिय नत्थि; जदि अत्थि जहा असण्णी ४०। संखेज्जा परंपरोववन्नगा ४१। एवं जहा अणंतरोववन्नगा तहा अणंतरोगाढगा ४२,
गंतराहारगा ४४.अणंतरपज्जत्तगा ४६। परंपरोगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववन्नगा ४३,४५, ४७, ४८, ४९।
. [८ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में (१) कितने नारक कहे गये हैं ? (२-२९) कितने कापोतलेश्यी नारक कहे गए हैं ? यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नैरयिक कहे गए हैं? (४०) कितने अनन्तरोपपन्नक कहे गए हैं, (४१) कितने परम्परोपपन्नक कहे गए हैं?, (४२) कितने अनन्तरावगाढ कहे गए हैं?, (४३) कितने परम्परावगाढ कहे गए हैं ? (४४) कितने अनन्तराहारक कहे गए हैं ?, (४५) कितने परम्पराहारक कहे गए हैं ? (४६) कितने अनन्तरपर्याप्तक कहे गए हैं ?, (४७) कितने परम्परपर्याप्तक कहे गए हैं ? (४८) कितने चरम कहे गए हैं ? और (४९) कितने अचरम कहे गए हैं ?
[८ उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से (१) संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में संख्यात नैरयिक कहे गए हैं । (२) संख्यात कापोतलेश्यी जीव कहे गए हैं । (३-५) इसी प्रकार यावत् संख्यात संज्ञी जीव कहे गए हैं। (६) असंज्ञी जीव कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। (७) भवसिद्धिक जीव संख्यात कहे गए हैं। (८-२१) इसी प्रकार यावत् परिग्रहसंज्ञा के उपयोग वाले नैरयिक संख्यात कहे गए हैं । (२२) (वहाँ) स्त्रीवेदक नहीं होते, (२३) पुरुषवेदक भी नहीं होते। (२४) (वहाँ) नपुंसकवेदी संख्यात कहे गए हैं । (२५) इसी प्रकार क्रोधकषायी भी संख्यात होते हैं । (२६) मानकषायी नैरयिक असंज्ञी नैरयिकों के समान (कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते, होते हैं तो उत्कृष्ट संख्यात होते हैं।) (२७-२८) इसी प्रकार यावत् (मायाकषायी और) लोभकषायी नैरयिकों के विषय में भी कहना चाहिए। (२९-३३) श्रोत्रेन्द्रिय-उपयोग वाले नैरयिकों से लेकर यावत्