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बारहवां शतक : उद्देशक-१०
२४० ३, देसे आदिठे सब्भावपज्जवे, देसे आदिठे असब्भावपज्जवे चउभंगो, सब्भावपज्जवेणं तदुभयेण यचउभंगो, असब्भावेणं तदुभयेण यचउभंगो; देसे आदिढे सब्भावपज्जवे, देसे आदिढे असब्भावपज्जवे, देसे आदिढे तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य, नो आया य, अवत्तव्वं-आया ति य नो आया ति य; देसे आदिङे सब्भावपज्जवे, देसे आदिढे असब्भावपज्जवे, देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा चउप्पएसिए खंधे आया य, नो आया य, अवत्तव्वाइं-आयाओ य नो आया य,१७, देसे आदिठे सब्भावपज्जवे, देसा आदिवा असब्भावपज्जवा, देसे आदिढे तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य,नो आयाओ य, अवत्तव्वं-आया ति य नो आया ति य १८, देसा आदिट्ठा सब्भावपज्जवा, देसे आदिढे असब्भावपज्जवे, देसे आदिढे तदुभयज्जवे चउप्पएसिए खंधे आताओ य, नो आया य, अवत्तव्वे-आया ति य नो आया ति य १९। से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ चउप्पएसिए खंधे सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं । निक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयव्वा जाव नो आया ति य।
[३०-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् आत्मा (सद्प) आदि होता है ?
[३०-२ उ.] गौतम ! (१) अपने आदेश (अपेक्षा) से (चतुष्प्रदेशी स्कन्ध) आत्मा (सद्प) है, (२) पर के आदेश से (वह) नो आत्मा है; (३) तदुभय (आत्मा और नो-आत्मा, इस उभयरूप) के आदेश से अवक्तव्य है। (४-७) एक देश के आदेश से सद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से (एकवचन और बहुवचन के आश्रयी) चार भंग होते हैं। (८-११) सद्भावपर्याय और तदुभयपर्याय की अपेक्षा से (एकवचन बहुवचन आश्रयी) चार भंग होते हैं। (१२-१५) असद्भावपर्याय और तदुभयपर्याय की अपेक्षा से (एकवचन-बहुवचन-आश्रयी) चार भंग होते हैं। (१६) एक देश के आदेश से सद्भावपर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के ओदश से तदुभय-पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, आत्मा, नो आत्मा और आत्मा-नो-आत्मा-उभयरूप होने से अवक्तव्य है। (१७) एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भावपर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के आदेश से तदुभय-पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा नो आत्मा, और आत्माएँ-नो-आत्माएँ इस उभयरूप से अवक्तव्य है। (१८) एक देश के आदेश से सद्भावपर्याय की अपेक्षा से बहुत देशों के आदेश से असद्भावपर्यायों की अपेक्षा से और एकदेश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा, नो-आत्माएँ और आत्मा-नो-आत्मा उभयरूप से अवक्तव्य है। (१९) बहुत देशों के आदेश से सद्भाव-पर्यायों की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भावपर्याय की अपेक्षा से तथा एक देश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्माएँ नो आत्मा और आत्मा-नो आत्मा उभयरूप से अवक्तव्य है। इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि चतुष्पदेशी स्कन्ध कथंचित् आत्मा है, कथंचित् नो-आत्मा है और कथंचित् अवक्तव्य है। इस निक्षेप में पूर्वोक्त सभी भंग 'नो आत्मा है' तक कहना चाहिए।