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प्राणातिपात आदि में वर्तमान जीव और जीवात्मा की भिन्नता के निराकरणपूर्वक जैनसिद्धान्तसम्मत जीव और आत्मा की कथंचित् अभिन्नत्ता का प्रतिपादन ६२३, रूपी
अरूपी नहीं हो सकता, न अरूपी रूपी हो सकता है ६२५. तृतीय उद्देशक : शैलेशी
६२८ शैलेषी अवस्थापन्न अनगार में परप्रयोग के विना एजनादि-निषेध ६२८, एजना के पाँच भेद ६२८, द्रव्यैजनादि पाँच एजनओं की चारों गतियों की दृष्टि से प्ररूपणा ६२९, चलना
और उसके भेद-प्रभेदों का निरूपण ६३०, शरीरादि-चलना के स्वरूप का सयुक्तिक
निरूपण ६३१, संवेग, निर्वेदादि उनचास पदों का अन्तिम फल-सिद्धि ६३३. चतुर्थ उद्देशक : क्रिया (आदि से सम्बन्धित चर्चा) ।
३३५ जीव और चौवीस दण्डकों में प्राणातिपात आदि पाँच क्रियाओं की प्ररूपणा ६३५, समय, देश और प्रदेश की अपेक्षा से जीव और चौवीस दण्डकों में प्राणातिपातादिक्रियानिरूपण ६३७, जीव और चौवीस दण्डकों में दुःख, दुःखवेदन, वेदना, वेदना-वेदन का आत्म
कृतत्वनिरूपण,६३८. पंचम उद्देशक : ईशानेन्द्र (की सुधर्मा सभा)
ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा का स्थानादि की दृष्टि से निरूपण ६४०. छठा उद्देशक : पृथ्वीकायिक (मरणसमुद्घात)
६४१ मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति
एवं पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? ६४१. सातवाँ उद्देशक : पृथ्वीकायिक
सौधर्मकल्पादि में मरणसमुद्घात द्वारा सप्त नरकों में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक जीव
की उत्पत्ति और पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? ६४४. अष्टम उद्देशक (अधस्तन) अप्कायिकसम्बन्धी
रत्नप्रभा में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्पादि में उत्पन्न होने योग्य अप्कायिक जीव
की उत्पत्ति और पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? ६४५. नौवाँ उद्देशक : (ऊर्ध्व लोकस्थ) अप्कायिक ।
६४६ सौधर्मकल्प में मरणसमुद्घात करके सप्त नरकादि में उत्पन्न होने योग्य अप्कायिक जीव
की उत्पत्ति और पुद्गल ग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? ६४६. दसवाँ उद्देशक : वायुकायिक (वक्तव्यता)
रत्नप्रभा में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने योग्य वायुकायिक जीव पहले उत्पन्न होते हैं या पहले पुद्गल ग्रहण करते हैं ? ६४७.
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