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अट्ठमो उद्देसओ : 'नागे'
अष्टम उद्देशक : 'नाग' महर्द्धिक देव की नाग, मणि, वृक्ष में उत्पत्ति, महिमा और सिद्धि
१. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी
[१] उस काल और उस समय में यावत् गौतम स्वामी ने यावत् (श्रमण भगवान् महावीर से) इस प्रकार प्रश्न किया
२.[१] देवे णं भंते ! महड्डीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु नागेसु उववज्जेजा ? हंता, उववज्जेजा।
[२-१ प्र.] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव च्यव (मर) कर क्या द्विशरीरी (दो जन्म धारण करके सिद्ध होने वाले) नागों (सो अथवा हाथियों) में उत्पन्न होता है ?
[२-१ उ.] हाँ गौतम ! (वह) उत्पन्न होता है। __ [२] से णं तत्थ अच्चियवंदियपूइयसक्कारियसम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे यावि भवेज्जा?
हंता, भवेजा। . .
[२-२ प्र.] भगवन् ! वह वहाँ नाग के भव में अर्चित, वन्दित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, . प्रधान, सत्यसत्यावपातरूप अथवा सन्निहित प्रतिहारिक भी होता है ? ..
[२-२ उ.] हाँ गौतम ! (वह ऐसा) होता है। [३] से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता सिझेजा बुझेजा जाव अंतं करेजा ? हंता, सिझेजा जाव अंतं करेजा।
[२-३ प्र.] भगवन् ! क्या वह वहाँ से अन्तररहित च्यव कर (मनुष्य भव में उत्पन्न होकर) सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, यावत् संसार का अन्त करता है ?
[२-३ उ.] हाँ, (गौतम ! वह वहाँ से सीधा मनुष्य होकर) सिद्ध होता है, यावत् संसार का अन्त करता है। ३. देवे णं भंते ! महड्डीए एवं जाव बिसरीरेसु मणीसु उववज्जेज्जा ? एवं चेव जहा नागाणं। [३ प्र.] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव च्यव कर द्विशरीरी मणियों में उत्पन्न होता है ?