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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [३ उ.] (हाँ, गौतम !) जैसे नागों के विषय में (कहा, उसी प्रकार इनके विषय में भी कहना चाहिए)। ४. देवे णं भंते ! महड्डीए जाव बिसरीरेसु रुक्खेसु उववज्जेज्जा ? हंता, उववजेजा। एवं चेव। नवरं इमं नाणत्तं—जाव सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिते यावि भवेजा? हंता, भवेजा। सेसं तं चेव जाव अंतं करेजा। [४ प्र.] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुखवाला देव (च्यव कर क्या) द्विशरीरी वृक्षों में उत्पन्न होता है ?
[४ उ.] हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है। उसी प्रकार (पूर्ववत् सारा कथन करना); विशेषता इतनी ही है कि (जिस वृक्ष में वह उत्पन्न होता है, वह अर्चित आदि के अतिरिक्त) यावत् सन्निहित प्रातिहारिक होता है, तथा उस वृक्ष की पीठिका (चबूतरा आदि) गोबर आदि से लीपी हुई और खड़िया मिट्टी आदि द्वारा उसकी दीवार आदि पोती (सफेदी की) हुई होने से वह पूजित (महित) होता है। शेष समस्त कथन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् वह (मनुष्य-भव धारण करके) संसार का अन्त करता है।।
विवेचन—महर्द्धिक देव की नाग-मणि-वृक्षादि में उत्पत्ति एवं प्रभाव-सम्बन्धी चर्चा–प्रस्तुत चार सूत्रों में महर्द्धिक देवों की नाग आदि भव में उत्पत्ति, महिमा एवं सिद्धि आदि विषय में चर्चा की गई है।
बिसरीरेस............" उववज्जेज्जा : आशय-जो दो शरीरों में, अर्थात् —एक शरीर (नाग आदि का भव) छोड़कर तदनन्तर दूसरे शरीर अर्थात्-मनुष्य शरीर को पाकर सिद्ध हों, ऐसे दो शरीरों में उत्पन्न होते हैं। निष्कर्ष यह है कि ऐसे द्विशरीरी नाग, मणि या वृक्ष अपना एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर मनुष्य का ही पाते हैं, जिससे वे सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाते हैं। __महिमा-नाग, मणि या वृक्ष के भव में भी वे देवाधिष्ठित होते हैं। इस कारण नागादि के भव में जिस क्षेत्र में वे उत्पन्न होते हैं, वहाँ उनकी अर्चा, वन्दना, पूजा, सत्कार और सम्मान होता है। वे दिव्य (देवाधिष्ठित), प्रधान (अपनी जाति में प्रधानता पाने वाले), सत्य स्वप्नादि द्वारा सच्चा भविष्यकथन करने वाले होते हैं, उनकी सेवा सत्य–सफल होती है, क्योंकि वे पूर्वसंगतिक प्रातिहारिक (प्रतिक्षण पहरेदार की तरह रक्षक) होकर उनके सन्निहित—अत्यन्त निकट रहते हैं। जो वृक्ष होता है, वह भी देवाधिष्ठित, विशिष्ट और बद्धपीठ होता है, जनता उसकी महिमा, पूजा आदि करती है और वह उसकी पीठिका (चबूतरे) को लीप-पोत कर स्वच्छ रखती है।
सन्निहियपाडिहेरे—जिसके निकटवर्ती प्रातिहार्य—पूर्व संगतिक आदि देवों द्वारा कृत प्रतिहारकर्म रक्षणादि कर्म होता है।
लाउल्लोइयमहिए-लाइयं अर्थात् गोबर आदि से पीठिका की भूमि लीपने, तथा उल्लोइयखड़िया मिट्टी आदि से दीवारों को पोतकर सफेदी करने से जो महित—पूजित होता है। नाग–सर्प या हाथी, मणिपृथ्वीकायिक जीव विशेष।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५८२ २. वही, पत्र ५८२ ३. वही, पत्र ५८२ ४. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५८२