SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८९ बारहवाँ शतक : उद्देशक-६ गोयमा ! चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताई आसण-सयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणाइं, अप्पणा वि य णं चन्दे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कंते सुभए पियदंसणे सुरूवे, से तेणटेणं जाव ससी। [४ प्र.] भगवन् ! चन्द्रमा को 'चन्द्र शशी (सश्री) है,' ऐसा क्यों कहा जाता है ? _ [४ उ.] गौतम ! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र का विमान मृगांक (मृग चिह्न वाला) है, उसमें कान्त देव तथा कान्ता देवियाँ हैं और आसन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, पात्र आदि उपकरण (भी) कान्त हैं। स्वयं ज्योतिष्कों का इन्द्र, ज्योतिष्कों का राजा चन्द्र भी सौम्य, कान्त, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप है, इसलिए ही, हे गौतम ! चन्द्रमा को शशी (सश्री–शोभायुक्त) कहा जाता है। ५. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'सूरे आदिच्चे, सूरे आदिच्चे' ? । गोयमा ! सूरादिया णं समया इ वा आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी ई वा, उस्सप्पिणी इ वा। से तेण टेणं जाव आदिच्चे। [५ प्र.] भगवन् ! सूर्य को—'सूर्य आदित्य है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? [५ उ.] गौतम ! समय अथवा आवलिका यावत् अथवा अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी (इत्यादि काल) की आदि सूर्य से होती है, इसलिए इसे आदित्य कहते हैं। विवेचन–शशी और सश्री : अभिधान का कारण—शश का अर्थ है मृग। शश (मृग) का चिह्न होने से इसे शशी, शशांक—मृगांक कहते हैं। शशी का रूपान्तर 'सश्री' भी होता है। सश्री का अर्थ हैशोभासहित । चन्द्र-विमान के देव, देवी तथा समस्त उपकरण कान्त-कमनीय अर्थात्-शोभनीय होते हैं, इस कारण इसे सश्री भी कहते हैं। सूर्य को 'आदित्य' कहने का कारण—चूंकि समय, आवलिका, दिन, रात, सप्ताह, पक्ष, मास वर्ष, यावत् उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी आदि समस्त कालों का आदिभूत (प्रथम कारण) सूर्य है। सूर्य को लेकर ही सर्वप्रथम यह सब काल विभाग होता है। इसलिए इसे आदित्य कहा गया है। चन्द्रमा और सूर्य की अग्रमहिषियों का वर्णन ६. चंदस्स ण भंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? जहा दसमसए ( स० १० उ० ५ सु० २७) जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र ५७८ (ख) भगवती (हिन्दी-विवेचन) भा. ४, पृ. २०६६ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र ५७८ (ख) सूर्यप्रज्ञप्ति प्राभृत २०, पत्र २७२, आगमोदय.
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy