________________
बारहवाँ शतक : उद्देशक - ६
ग्रस लिया है, ऐसा उनका कथन केवल औपचारिक है, वास्तविक नहीं । राहु की छाया चन्द्र पर पड़ती है। अतः राहु के द्वारा चन्द्र का ग्रसन कार्य एक तरह से आवरण (आच्छादन) मात्र है, जो कि वैस्त्रासिक—स्वाभाविक है, कर्मकृत नहीं।
'वास्तव में ग्रहण राहु और चन्द्रमा के विमानन की अपेक्षा से है, किन्तु दोनों विमानों में ग्रासक और ग्रसनीय भाव कथमपि सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनों परस्पर आश्रयमात्र हैं । अतः यहाँ आच्छाद्य - आच्छादक भाव है, और इसी को विवक्षावश ग्रास कहा जाता है। यहाँ राहु और चन्द्रमा के विमान की अपेक्षा से 'ग्रहण' कहलाता है ।"
१८७
'वीईवयइ' : भावार्थ, आशय
'जया णं राहू' -जब राहु अपनी स्वाभाविक, अत्यन्त तीव्र गति से कृष्णादि- विमान द्वारा चल कर बाद में जब उसी विमान से वापिस लौटता है। आना-जाना, ये दोनों क्रियाएँ स्वाभाविक गति हैं । तथा विक्रिया या परिचारणा, ये दोनों क्रियाएँ अस्वाभाविक विमानगति हैं । अतः इन दोनों अवस्थाओं में अति त्वरा से प्रवृत्ति करता है, इसलिए विसंस्थुल चेष्टा वाला होने के कारण वह अपने विमान को ठीक तरह से नहीं चलाता। राहु चन्द्र की दीप्ति को पूर्व दिशा में आच्छादित करके पश्चिम में चला जाता है। इस प्रकार राहु अपने विमान द्वारा चन्द्र के विमान को आवृत करता है तो चन्द्र की द्युति भी आवृत हो जाती है। इसी को आम लोग चन्द्रग्रसन या ग्रहण कहते हैं ।
खंजन आदि पदों के अर्थ — खंजन — दीपक का कज्जल । लाउअं- - अलख अथवा तुम्बिका ( अपक्व ) । भासरासि — भस्मराशि, राख का पुंज । परियारेमाणे – कामक्रीडा करता हुआ । ध्रुवराहु और पर्वराहु का स्वरूप एवं दोनों द्वारा चन्द्र को आवृत - अनावृत्त करने का कार्यकलाप
३. कतिविधे णं भंते ! राहू पन्नत्ते ?
गोयमा ! दुविहे राहू पन्नत्ते, तं जहा – ध्रुवराहु य पव्वराहू य । तत्थ णं जे से ध्रुवराहु से बहुलपक्खस्स पाडिवए पन्नरसतिभागेणं पन्नरसतिभागं, चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे आवरेमाणे चिट्ठति, तं जहा — पढमाए पढमं भागं, बितियाए बितियं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं । चरिमसमये चंदे रत्ते भवति, अवसेसे समये चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवति । तमेव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे २ चिट्ठ— पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत् य भवइ । तत्थ णं जे से पव्वराहू से जहन्त्रेणं छण्हं मासणं; उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं सूरस्स ।
१. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ. ५९२ से ५९४ तक
(ख) भगवती (प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या) भा. १०, पृ. २११ से २१८ तक (ग) भगवती. अ., वृत्ति, पत्र ५७६
२. भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या) भा. १०, पृ. २१०
३. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र ५७६