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________________ बारहवाँ शतक : उद्देशक - ६ १८५ जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पासेणं वीईवयइ तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति — एवं खलु चंदेणं राहुस्सं कुच्छी भिन्ना, एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना | जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पच्चोसक्कइ तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति — एवं खलु राहुणा चंदे वंते, एवं खलु राहुणा चंदे वंते। जया णं राहू आगच्छमाणे वा ४ चंदलेस्सं आवरेत्ताणं मज्झंमज्झेणं वीतीवयति तदा णं मणुस्सा वदंति—राहुणा चंदे वतिचरिए, राहुणा चंदे वतिचरिए । जाणं राहू आगच्छमाणे वा जाव परियारेमाणे वा चंदेलेस्सं अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरेत्ताणं चिट्ठति तदाणं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति — एवं खलु राहुणा चन्दे घत्थे, एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे । [२ प्र.] भगवन् ! बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि निश्चित ही राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है, तो हे भगवन् ! क्या यह ऐसा ही है ? [२ उ.] गौतम ! यह जो बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि राहु चन्द्रमा को ग्रसता है, वे मिथ्या कहते हैं। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ 4. 'यह निश्चय है कि राहु महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न उत्तम वस्त्रधारी, श्रेष्ठ माला का धारक, उत्कृष्ट सुगन्ध-धर और उत्तम आभूषणधारी देव है। " राहु देव के नौ नाम कहे हैं – (१) शृंगाटक, (२) जटिलक, (३) क्षत्रक, (४) खर, (५) दर्दुर, (६) मकर, (७) मत्स्य, (८) कच्छप और (९) कृष्णसर्प । राहुदेव के विमान पांच वर्ण (रंग) के कहे हैं— (१) काला, (२) नीला, (३) लाल, (४) पीला और (५) श्वेत। इनमें से राहु का जो काला विमान है, वह खंजन (काजल) के समान कान्ति (आभा वाला है। राहुदेव का जो नीला (हरा) विमान है, वह हरी तुम्बी के समान कान्ति वाला है । राहु का जो लोहित (लाल) विमान है, वह मजीठ के समान प्रभा वाला है। राहु का जो पीला विमान है, वह हल्दी के समान वर्ण वाला है और राहु का जो शुक्ल (श्वेत) विमान है, वह भस्मराशि (राख के ढेर) के समान कान्ति वाला है । जब गमन - आगमन कर हुआ, विकुर्वणा ( विक्रिया) करता हुआ तथा कामक्रीडा करता हुआ राहुदेव, पूर्व में स्थित चन्द्रमा की ज्योत्स्ना (लेश्या) को ढक (आवृत) कर पश्चिम की ओर चला जाता है; तब चन्द्रमा पूर्व में दिखाई देता है और पश्चिम में राहु दिखाई देता है । जब आता हुआ या जाता हुआ, अथवा विक्रिया करता हुआ या कामक्रीडा करता हुआ राहु, चन्द्रमा की दीप्ति को पश्चिमदिशा में आच्छादित करके पूर्वदिशा की ओर चला जाता है; तब चन्द्रमा पश्चिम में दिखाई देता है और राहु पूर्व में दिखाई देता है। जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम के दो आलापक कहे हैं, उसी प्रकार दक्षिण और उत्तर के दो आलापक
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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