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बारहवाँ शतक : उद्देशक-४
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उससे वचन-पुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा हैं। यद्यपि मन की अपेक्षा वचन शीघ्र प्राप्त होता है तथा द्वीन्द्रियादि अवस्था में भी वचन होता है। तथापि मनोद्रव्यों की अपेक्षा भाषाद्रव्य अत्यन्त स्थूल होते हैं, इसलिए एक बार उनका अल्पपरिमाण में ही ग्रहण होता है। अतः मन:पुद्गल-परिवर्त-निष्पत्तिकाल से वाक्पुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है। इससे वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि वैक्रियशरीर बहुत दीर्घकाल में प्राप्त होता है। सप्तविध पुद्गलपरिवर्तों का अल्पबहुत्व
५४. एएसि णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियाणं जाव आणापाणुपोग्गलपरियाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ?
गोयमा ! सव्वत्थोवा वेउव्वियपोग्गलपरियट्टा, वइपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, मणपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, औरालियपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, तेयापोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, कम्मगपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा। . सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं जाव विहरइ।
॥बारसमे गए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥१२-४॥ . [५४ प्र.] भगवन् ! औदारिक-पुद्गलपरिवर्त (से लेकर), आनप्राण-पुद्गलपरिवर्त्त में कौन पुद्गलपरिवर्त किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ?
[५४ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त्त हैं। उनसे वचन-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे होते हैं, उनसे मन:पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे आनप्राण-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे औदारिक-पुद्गलपरिवर्त अनन्तगुणे हैं, उनसे तैजस-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, और उनसे भी कार्मण-पुद्गलपरिवर्त अनन्तगुणे हैं।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर भगवान् गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-पुद्गलपरिवर्तों के अल्पबहुत्व का कारण—इन सप्तविध पुद्गलपरिवर्तों में सबसे थोड़े वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त्त हैं, क्योंकि वे बहुत दीर्घकाल में निष्पन्न होते हैं। उनसे वचन-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अल्पतर काल में ही निष्पन्न होते हैं।
इसी प्रकार पूर्वोक्त युक्ति से बहुत, बहुतर आदि क्रम से आगे-आगे के पुद्गलपरिवर्तों का अल्पबहुत्व कह देना चाहिए। ॥ बारहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
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१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५७० २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५७०