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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
गोयमा ! सव्वत्थोवे कम्मगपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणकाले, तेयपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अनंतगुणे, ओरालियपोग्गलपरियट्ट निव्वत्तणाकाले अनंतगुणे, आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अनंतगुणे, मणपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अनंतगुणे, वइपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, वेडव्वियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे ।
[५३. प्र.] भगवन् ! औदारिक- पुद्गलपरिवर्त्त - निर्वर्त्तना (निष्पत्ति) काल, वैक्रिय- पुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्त्तनाकाल यावत् आन-प्राण- पुद्गलपरिवर्त्त-निर्वर्त्तनाकाल, इन (सातों) में से कौन सा (निष्पत्ति ) काल, किस कल से अल्प यावत् विशेषाधिक है ?
[५३ उ.] गौतम ! सबसे थोड़ा कार्मण - पुद्गलपरिवर्त का निर्वर्त्तना ( - निष्पत्ति) काल है। उससे तैजस-पुद्गलपरिवर्त्त-निर्वर्त्तनाकाल अनन्तगुणा (अधिक) है। उससे औदारिक- पुद्गलपरिवर्त्त-निर्वर्त्तनाकाल अनन्तगुणा है और उससे आन-प्राण- पुद्गलपरिवर्त्त-निर्वर्त्तनाकाल अनन्तगुणा है। उससे मन:- पुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्त्तनाकाल अनन्तगुणा है। उससे वचन - पुद्गलपरिवर्त्त - निर्वर्त्तनाकाल अनन्तगुणा है और उससे वैक्रियपुद्गलपरिवर्त्त का निर्वर्त्तनाकाल अनन्तगुणा है ।
विवेचन—सप्तविध पुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल में अन्तर का कारण कार्मण- पुद्गलपरिवर्त्तनिष्पत्तिकाल सबसे थोड़ा इसलिए है कि कार्मणपुद्गल सूक्ष्म होते हैं और बहुत से परमाणुओं से निष्पन्न होते हैं । इसलिए वे एक ही बार में बहुत-से ग्रहण किये जाते हैं तथा नारक आदि सभी गतियों में वर्तमान जीव प्रति समय उन्हें ग्रहण करता रहता है। इसलिए स्वल्प-काल में ही उन सभी पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है। उससे तैजसपुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि तैजसपुद्गल स्थूल होने के कारण एक बार में अल्प पुद्गलों का ग्रहण होता है । अल्पप्रदेशों से निष्पन्न होने के कारण उनके अल्प अणुओं का ग्रहण होता है। इसलिए कार्मण से तैजस- पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है। उससे औदारिक- पुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है क्योंकि औदारिकपुद्गल अत्यन्त स्थूल होते हैं । इसलिए उनमें से एक बार में अल्प का ही ग्रहण होता है । और फिर उनके प्रदेश भी अल्पतर हैं। अत: उनके ग्रहण करने में, एक समय में अल्प अणु ही गृहीत होते हैं तथा वे कार्मण और तैजस पुद्गलों की तरह सर्व संसारी जीवों द्वारा निरन्तर गृहीत नहीं होते, किन्तु केवल औदारिकशरीरधारियों द्वारा ही उनका ग्रहण होता है । इसलिए बहुत लम्बे काल में उनका ग्रहण होता है। उससे आन-प्राण- पुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है। यद्यपि औदारिकपुद्गलों से आन-प्राणपुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी होते हैं, इसलिए उनका ग्रहण अल्पकाल में हो सकता है, तथापि अपर्याप्त अवस्था में उनका ग्रहण न होने से तथा पर्याप्त अवस्था में भी औदारिकशरीर- पुद्गलों की अपेक्षा अल्प परिमाण में उनका ग्रहण होने से, उनका शीघ्र ग्रहण नहीं होता। इसलिए औदारिक- पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल से आन-प्राण- पुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा । उससे मनःपुद्गलपरिवर्त - निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है । यद्यपि आनप्राणपुद्गलों की अपेक्षा मन: पुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी होते हैं, इस कारण अल्पकाल में ही उनका ग्रहण सम्भव है, तथापि एकेन्द्रियादि की कायस्थिति बहुत दीर्घकालीन है। उनमें चले जाने पर मन की प्राप्ति चिरकाल के बाद होती है, इसलिए मन:पुद्गल-परिवर्त्त दीर्घकाल साध्य होने से मनः- - पुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल उससे अनन्तगुणा कहा गया है।