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बारहवाँ शतक : उद्देशक-४
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[४२-२ प्र.] भगवन् ! (अनेक नैरयिकों के पृथ्वीकायिकपन में) भविष्य में (औदारिक-पुद्गलपरिवर्त) कितने होंगे?
[४२-२ उ.] गौतम ! अनन्त होंगे। ४३. एवं जाव मणुस्सत्ते।
[४३] जिस प्रकार अनेक नैरयिकों के पृथ्वीकायिकपन में अतीत-अनागत औदारिक-पुद्गल परिवर्त्त के विषय में कहा है, उसी प्रकार यावत् मनुष्यभव तक कहना चाहिए।
४४. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते।
[४४] जिस प्रकार अनेक नैरयिकों के नैरयिकभव में अतीत-अनागत औदारिक-पुद्गलपरिवर्त के विषय में कहा है, उसी प्रकार उनके वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव के भव में भी कहना चाहिए।
४५. एवं जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते ।
[४५] (अनेकं नैरयिकों के वैमानिक भव तक का औदारिक-पुद्गलपरिवर्त्त-विषयक कथन किया) उसी प्रकार यावत् अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव तक (कथन करना चाहिए)।
४६. एवं सत्त वि पोग्गलपरियट्टा भाणियव्वा। जत्थ अत्थि तत्थ अतीता वि, पुरेक्खडा वि अणंता भाणियव्वा। जत्थ नत्थि तत्थ दो वि 'नत्थि' भाणियव्वा जाव वेमाणियाणं वेमाणयित्ते केवतिया आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अतीया ? अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? अणंता।
[४६] जिस प्रकार औदारिक-पुद्गलपरिवर्त के विषय में कहा, उसी प्रकार शेष सातों पुद्गलपरिवर्तों का कथन कहना चाहिए। जहाँ जो पुद्गलपरिवर्त्त हो, वहाँ उसके अतीत (भूतकालिक) और पुरस्कृत (भविष्यकालीन) पुद्गलपरिवर्त्त अनन्त-अनन्त कहने चाहिए। जहाँ नहीं हों, वहाँ अतीत और पुरस्कृत (अनागत) दोनों नहीं कहने चाहिए। यावत्-(प्रश्न) 'भगवन् ! अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव में कितने आन-प्राण-पुद्गलपस्वित (अतीत में) हुए ? (उत्तर-) गौतम ! अनन्त हुए हैं। (प्रश्न—) 'भगवन् ! आगे ( भविष्य में) कितने होंगे?' (उत्तर-) 'गौतम ! अनन्त होंगे।'—यहाँ तक कहना चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत सात सूत्रों में (सू. ४० से ४६ तक) अनेक नैरयिकों से लेकर अनेक वैमानिकों (चौवीस दण्डकों) तक नैरयिकभव से लेकर वैमानिकभव तक में अतीत-अनागत सप्तविधपुद्गल-परिवत्र्तों की संख्या का निरूपण किया गया है। पूर्वसूत्रों में एकत्व की अपेक्षा से प्रतिपादन था, इन सूत्रों में बहुत्व की अपेक्षा से कथन है। शेष सब का अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है।
कठिन शब्दार्थ—एगुत्तरिया-एक से लेकर उत्तरोत्तर संख्यात, असंख्यात या अनन्त तक। नेरइयत्ते नैरयिक के रूप में अर्थात् नारक के भव में—नैरयिक पर्याय में।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५६९
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ४, पृ. २०३८