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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ४७. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चई 'ओरालियपोग्गलपरियट्टे, ओरालियपोग्गलपरियट्टे ?" गोयमा ! जं णं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाइं दव्वाइं ओरालियसरीरत्ताए गहियाइं बद्धाइं पुट्ठाई कडाई पट्टवियाइं निविट्ठाई अभिनिविट्ठाइं अभिसमन्नागयाइं परियाइयाइं परिणामियाइं निज्जिण्णाइं निसिरियाई निमिट्ठाइं भवंति से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'ओरालियपोग्गलपरियट्टे, ओरालियपोग्गलपरियट्टे ।' [४७ प्र.] भगवन् ! यह औदारिक- पुद्गलपरिवर्त्त, औदारिक- पुद्गलपरिवर्त्त किसलिए कहा जाता है ? [ ४७ उ. ] गौतम ! औदारिकशरीर में रहते हुए जीव ने औदारिकशरीर योग्य द्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण किये हैं, बद्ध किये हैं (अर्थात् — जीव प्रदेश के साथ एकमेक किये हैं) (शरीर पर रेणु के समान ) स्पृष्ट किये हैं; (अथवा अपर- अपर ग्रहण करके उन्हें) पोषित किये हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है; उन्हें प्रस्थापित (स्थिर) किया है; (स्वयं जीव ने) निविष्ट (स्थापित) किये हैं, अभिनिविष्ट ( जीव के साथ सर्वथा संलग्न) किये हैं; अभिसमन्वागत (जीव ने रसानुभूति का आश्रय लेकर सबको समाप्त) किया है। ( जीव ने रसग्रहण द्वारा सभी अवयवों से उन्हें ) पर्याप्त कर लिये हैं । परिणामित (रसानुभूति से ही परिणामान्तर प्राप्त) कराये हैं, निर्जीर्ण (क्षीण रस वाले) किये हैं, (जीव प्रदेशों से उन्हें ) निःसृत (पृथक्) किये हैं, (जीव के द्वारा) नि:सृष्ट (अपने प्रदेशों से परित्यक्त) किये हैं । १६८ हे गौतम ! इसी कारण से औदारिक- पुद्गलपरिवर्त्त औदारिक- पुद्गलपरिवर्त्त कहलाता है। ४८. एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्टे वि, नवरं वेउव्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेडव्वियसरीरपायोग्गाई दव्वाइं वेडव्वियसरीरत्ताए० । सेसं तं चैव सव्वं । [४८] इसी प्रकार (पूर्वोक्तवत्) वैक्रिय-पुद्गलंपरिवर्त्त के विषय में भी कहना चाहिए। परन्तु इतना विशेष है कि जीव ने वैक्रियशरीर में रहते हुए वैक्रियशरीर योग्य द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण किये हैं, इत्यादि शेष सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। ४९. एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे नवरं आणापाणुपायोग्गाइं सव्वदव्वाइं आणापाणुत्ताए० । सेसं तं चेव । [४९] इसी प्रकार (तैजस, कार्मण से लेकर) यावत् आन-प्राण- पुद्गलपरिवर्त्त तक कहना चाहिए। विशेष यह है कि आन- प्राण- योग्य समस्त द्रव्यों को आन-प्राण रूप से जीव ने ग्रहण किये हैं, इत्यादि (सब कथन करना चाहिए। शेष सब कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए) । विवेचन — प्रस्तुत सूत्र (४७) में औदारिक- पुद्गलपरिवर्त कहलाने के १३ कारणों पर प्रकाश डालते हुए १३ प्रक्रियाएँ बताई गई हैं – (१) गृहीत, (२) बद्ध, (३) स्पृष्ट या पुष्ट, (४) कृत, (५) प्रस्थापित, (६) निविष्ट, (७) अभिनिविष्ट, (८) अभिसमन्वागत, (९) पर्याप्त, (१०) परिणामित, (११) निर्जीण, (१२ निःसृत और (१३) निःसृष्ट । इन तेरह प्रक्रियाओं में से औदारिक शरीर योग्य द्रव्यों के गुजरने के कारण ही वह
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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