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________________ बारहवाँ शतक : उद्देशक-४ १६५ वेमाणियत्ते। [३९] तैजस-पुद्गलपरिवर्त्त और कार्मण-पुद्गलपरिवर्त्त सर्वत्र (चौवीस ही दण्डकवर्ती जीवों में) एक से लेकर उत्तरोत्तर अनन्त तक कहने चाहिए। मनःपुद्गलपरिवर्त्त समस्त पंचेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर उत्तरोत्तर यावत् अनन्त तक कहने चाहिए। किन्तु विकलेन्द्रियों (द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय वाले जीवों) में मनः-पुद्गलपरिवर्त नहीं होता। इसी प्रकार (मन:-पुद्गलपरिवर्त्त के समान) वचन-पुद्गलपरिवर्त्त के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। विशेष (अन्तर) इतना ही है कि वह (वचन-पुद्गलपरिवर्त्त) एकेन्द्रिय जीवों में नहीं होता। आन-प्राण (श्वासोच्छ्वास)-पुद्गलपरिवर्त्त भी सर्वत्र (सभी जीवों में) एक से लेकर अनन्त तक जानना चाहिए। (ऐसा ही कथन) यावत् वैमानिक के वैमानिक भव तक कहना चहिए। विवेचन—प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. २८ से ३९ तक) में प्रत्येक वर्तमानकालिक नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के अतीत-अनागत नैरयिकत्वादि रूप के सप्तविध पुद्गलपरिवत्र्तों की संख्या का निरूपण किया . गया है। वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त्त-एक-एक नैरयिक जीव के नैरयिक भव में रहते हुए अनन्त वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त अतीत में हुए हैं, तथा भविष्यत्काल में किसी के होंगे किसी के नहीं। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होंगे। इसके अतिरिक्त वायुकाय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और व्यन्तरादि में से जिन-जिन में वैक्रिय-शरीर है उनउनके वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त एकोत्तरिक (अर्थात् एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त तक) कहना चाहिए । जहाँ अप्कायिक आदि प्रत्येक जीवों में वैक्रियशरीर नहीं है, वहाँ वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त भी नहीं होता। तैजस-कार्मण-परिवर्त—तैजस और कार्मण ये दोनों शरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं । इसलिए नारकादि चौवीस दण्डकवर्ती सभी जीवों में तैजस-कार्मण-पुद्गलपरिवर्त्त अतीत और भविष्यत्काल में एक से लेकर उत्तरोत्तर अनन्त तक कहने चाहिए। मनः-पुद्गलपरिवर्त्त कहाँ और कहाँ नहीं ?—मन संज्ञी पंचेन्द्रियों के होता है, इसलिए पंचेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर अनन्त तक मन:पुद्गलपरिवर्त्त होते हैं, हुए हैं, होंगे। किन्तु जिनमें इन्द्रियों की परिपूर्णता नहीं है, उन विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के) जीवों में मन का अभाव है, इसलिए उनमें मन:पुद्गल-परिवर्त्त नहीं होता। विकलेन्द्रिय शब्द से यहाँ एकेन्द्रिय का भी ग्रहण होता है। वचन-पुद्गलपरिवर्त्त--एकेन्द्रिय जीवों के वचन नहीं होता, इसलिए उन्हें छोड़ कर शेष समस्त संसारी जीवों के (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, और देव) के वचन पुद्गलपरिवर्त पूर्ववत् १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५६९ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ४, पृ. २०४१ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५६९
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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