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नरकपृथ्वियाँ, रत्नप्रभा के नारकावासों की संख्या और उनका विस्तार २४५, रत्नप्रभा के संख्यात योजन विस्तृत नारकावासों में उद्वर्त्तना सम्बन्धी उनचालीस प्रश्नोत्तर २४६, शर्कराप्रभादि छह पृथ्वियों के नरकावासों की संख्या तथा संख्य- असंख्यात योजनविस्तृत नरकों में उत्पत्ति, उद्वर्त्तना तथा सत्ता की संख्या का निरूपण २५४, संख्यातअसंख्यात योजन विस्तृत नरकों में सम्यग् मिथ्या- मिश्रदृष्टि नैरयिकों के उत्पाद - उद्वर्त्तना एवं अविरहित- विरहित की प्ररूपणा २५७.
प्रथम उद्देशक : पृथ्वी
द्वितीय उद्देशक : देव
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चतुर्विध देवप्ररूपणा २६२, भवनपति देवों के प्रकार, असुरकुमार एवं उनके विस्तार की प्ररूपणा २६२, संख्यात - असंख्यात विस्तृत भवनपति आवासों में विविध-विशेषणविशिष्ट असुरकुमारादि से सम्बन्धित उनपचास प्रश्नोत्तर २६३, वाणव्यन्तर देवों की आवाससंख्या, विस्तार, उत्पाद, उद्वर्त्तना और सत्ता की प्ररूपणा २६५, ज्योतिष्कदेवों की विमानावाससंख्या, विस्तार एवं विविध - विशेषण - विशिष्ट की उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा २६६, कल्पवासी, ग्रैवेयक एवं अनुत्तर देवों की विमानावाससंख्या, विस्तार, उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा २६७, चतुर्विध देवों के संख्यात असंख्यात विस्तृत आवासों में सम्यग्दृष्टि आदि के उत्पाद, उद्वर्त्तन एवं सत्ता की प्ररूपणा २७२, एक लेश्यावाले का दूसरी लेश्या वाले देवों में उत्पाद - निरूपण २७३.
तृतीय उद्देशक : अनन्तर
चौवीस दण्डकों में अनन्तराहारादि यावत् परिचारणा की प्ररूपणा २७४.
चतुर्थ उद्देशक : नरकपृथ्वियाँ
गाथाएं तथा सात पृथ्वियाँ, २७५, प्रथमद्वार— नैरयिक - नरकावासों की संख्यादि अनेक पदों से परस्पर तुलना २७५, द्वितीय स्पर्श द्वार - ( सात पृथ्वियों के नैरयिकों की एकेन्द्रिय जीव) पृथ्वीस्पर्शानुभव प्ररूपणा २७७, तृतीय प्रणिधिद्वार - सात पृथ्वियों की मोटाई आदि की प्ररूपणा २७८, चतुर्थ निरयान्तद्वार—सात पृथ्वियों के निकटवर्त्ती एकेन्द्रियों की महाकर्म अल्पकर्मतादि प्ररूपणा २७८, पंचमद्वार — लोक - त्रिलोक का आयाममध्यस्थान निरूपण २७८, छठा दिशा, विदिशाप्रवादि द्वार― ऐन्द्री आदि दस दिशाविदिशाओं का स्वरूपनिरूपण २८१, सप्तम प्रवर्त्तनद्वार— लोक - पंचास्कििायनिरूपण २८३, आठवाँ अस्तिकायस्पर्शनाद्वार- पंचास्तिकायप्रदेश - अद्धासमयों का परस्पर जघन्योत्कृष्टप्रदेश- स्पर्शनानिरूपण २८७, नौवाँ अवगाहनाद्वार— अस्तिकाय - अद्धासमयों का परस्पर विस्तृत प्रदेशावगाहनानिरूपण ३०२, दसवाँ जीवावगाढद्वार-पाँच एकेन्द्रियों का परस्पर अवगाहन निरूपण ३१०, ग्यारहवाँ अस्ति- प्रदेश - निषीदनद्वार— धर्माधर्माकाशास्तिकायों पर बैठने आदि का दृष्टान्तपूर्वक निषेध निरूपण ३११, बारहवाँ द्वार — बहुसम, सर्वसंक्षिप्त[ १६ ]
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