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________________ १३४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सुप्तत्व-जागृतत्व, सबलत्व-दुर्बलत्व एवं दक्षत्व-आलसित्व के साधुता विषयक प्रश्नोत्तर १८. [१] सुत्तत्तं भंते ! साहू, जागरियत्तं साहू ? जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू। [१८-१ प्र.] भगवन् ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जागृत रहना अच्छा ? . [१८-१ उ.] जयंती ! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है। [२] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ ‘अत्थेगतियाणं जाव साहू ?' . जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्मपलोई अहम्मपलज्जा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू। एए णं जीवा सुत्ता समाणा नो बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए वटंति। एए णं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहूहिं अहम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। एएसिं णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू। जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू। एए णं जीवा जागरा समाणा बहणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदक्खणयाए जाव अपरियावणयाए वटंति। एते णं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति। एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू। से तेणढेणं जयंती ! एवं वुच्चइ–'अत्थेगतियाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू। [१८-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण कहते हैं कि कुछ जीवों का सुप्त रहना और कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है ? [१८-२ उ.] जयंती ! जो ये अधार्मिक, अधर्मानुसरणकर्ता, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले अधर्मावलोकनकर्ता, अधर्म में आसक्त, अधर्माचरणकर्ता और अधर्म से ही आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है; क्योंकि ये जीव सुप्त रहते हैं, तो अनेक प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दु:ख, शोक और परिताप देने में प्रवृत्त नहीं होते। ये जीव सोए रहते हैं तो अपने को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं (प्रपंचों) में नहीं फंसाते। इसलिए इन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है। 'जयंती ! जो ये धार्मिक हैं, धर्मानुसारी, धर्मप्रिय, धर्म का कथन करने वाले, धर्म के अवलोनकर्ता, धर्मासक्त, धर्माचरणी, और धर्म से ही अपनी आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है. क्योंकि ये जीव जाग्रत हों तो बहत से प्राणों. भतों जीवों और सत्त्वों को द:ख.शोक और परिताप देने में प्रवत्त नहीं होते (अर्थात् ये अनेक जीवों के दुःख, शोक और परिताप को दूर करने में प्रवृत्त होते हैं)। ऐसे (धर्मनिष्ठ) जीव जाग्रत रहते हुए स्वयं को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक धार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करते रहते हैं।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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