________________
मुद्गल परिव्राजक
मुद्गल परिव्राजक : परिचय और समुत्पन्नविभंगज्ञान
१६. तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था। वण्णओ। तत्थ णं संखवणे णामं चेइए होत्था। वण्णओ। तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते मोग्गले नाम परिव्वायए परिवसति रिजुब्वेद-यजुव्वेद जाव नयेसु सुपरिनिट्ठिए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दू बाहाओ जाव आयावेमाणे विहरति।
[१६] उस काल और उस समय में आलभिका नाम की नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। उस शंखवन उद्यान के न अतिदूर और न अतिनिकट (कुछ दूर) मुद्गल (पुद्गल) नामक परिव्राजक रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि शास्त्रों यावत् बहुत से ब्राह्मण विषयक नयों में सम्यक् निष्णात था। वह लगातार बेले-बेले (छ?-छट्ठ) का तपःकर्म करता हुआ तथा आतापनाभूमि में दोनों भुजाएँ ऊँची करके यावत् आतापना लेता हुआ विचरण करता था।
१७. तए णं तस्स मोग्गलस्स परिव्वायगस्स छटुंछटेणं जाव आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए जहा सिवस्स ( स० ११ उ० ९ सु० १६) जाव विब्भंगे नामं णाणे समुप्पन्ने। से णं तेणं विन्भंगेणं नाणेणं समुप्पन्नेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठितिं जाणति पासति।
[१७] तत्पश्चात् इस प्रकार से बेले-बेले का तपश्चरण करते हुए मुद्गल परिव्राजक को प्रकृति की भद्रता आदि के कारण (श. ११, उ.९ सू. १६ में वर्णित) शिवराजर्षि के समान विभंगज्ञान (कु-अवधिज्ञान) उत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंगज्ञान के कारण पंचम ब्रह्मलोक कल्प में रहे हुए देवों की स्थिति तक जानने-देखने लगा।
विवेचनमुद्गल परिव्राजक और उसे उत्पन्न विभंगज्ञान–प्रस्तुत दो सूत्रों (१६-१७) में मुद्गल परिव्राजक का परिचय और उसे उक्त तपश्चर्या, आतापना तथा प्रकृतिभद्रता आदि के कारण विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ, जिसमें वह पंचम देवलोक के देवों की स्थिति जान-देख सकता था। विभंगज्ञानी मुद्गल द्वारा अतिशय ज्ञान की घोषणा और जनप्रतिक्रिया
१८. तए णं तस्स मोग्गलस्स परिव्वायगस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—'अस्थि णं ममं अतिसेसे नाण-दंसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य।' एवं संपेहेति, एवं सं० २ आयावणभूमीओ पच्चोरुभति, आ०
१. किसी-किसी प्रति में 'मोग्गले' (मुद्गल) के बदले पोग्गले (पुद्गल) पाठ है। वैदिकसंस्कृति की दृष्टि से "मुद्गल"
शब्द उचित प्रतीत होता है। २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५५७