________________
ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक-१२
१०५ प० २ तिदंड-कुंडियंजाव धाउरत्ताओ यगेण्हति, गे० २ जेणेव आलभिया णगरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० २ भंडनिक्खेवं करेति, भं० क० २ आलभियाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव परूवेति—अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं० तं चेव जाव वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य।
[१८] तत्पश्चात् उस मुद्गल परिव्राजक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि-"मुझे अतिशयज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् असंख्यात समय अधिक, इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। उससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हैं, नहीं हैं।" इस प्रकार उसने ऐसा निश्चय कर लिया। फिर वह आतापनाभूमि से नीचे उतरा और त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गैरिक (धातुरक्त) वस्त्रों को लेकर आलभिका नगरी में जहाँ तापसों का मठ (आवसथ) था, वहाँ आया। वहाँ उसने अपने भण्डोपकरण रखे और आलभिका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्ग पर एक-दूसरे से इस प्रकार कहने और प्ररूपणा करने लगा—'हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता-देखता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति यावत् (दस सागरोपम की है।) इससे आगे देवों और देवलोकों का अभाव है।"
१९. तए णं आलभियाए नगरीय एवं एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स (स० ११ उ० ९ सु० १८) जाव से कहमेयं मन्ने एवं ?
[१९] इस बात को सुनकर आलभिका नगरी के लोग परस्पर (श. ११, उ. ९, सू. १८ के अनुसार) शिव राजर्षि के अधिलाप के समान कहने लगे यावत्-“हे देवानुप्रियो ! उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?" .
विवेचन—मुद्गल का अतिशय ज्ञानोत्पत्ति का मिथ्या दावा और घोषणा–प्रस्तुत दो सूत्रों (१८-१९) में से प्रथम मुद्गल परिव्राजक द्वारा स्वयं को अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होने की मिथ्या धारणा तथा घोषणा का और द्वितीय सूत्र में आलभिका नगरी के लोगों की प्रतिक्रिया का वर्णन है। भगवान् द्वारा सत्यासत्य का निर्णय
२०. सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया भगवं गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेत बहुजणसदं निसामेति ( स० ११ उ० ९ सु० २०), तहेव सव्वं भाणियव्वं जाव (स० ११ उ० ९ सु० २१) अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि एवं भासामि जाव परूवेमि-देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ठिती पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता; तेण परं बोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य।
[२०] (उन्हीं दिनों में आलभिका नगरी में) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत् परिषद् (धर्मोपदेश सुनकर) वापस लौटी। भगवान् गौतमस्वामी उसी प्रकार (पूर्ववत्) नगरी में भिक्षाचर्या के
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५५८