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ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक-१२ वासगपरियागं पाउणिहिति, ब० पा० २ मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति, मा० झू० २ सळिं भत्ताइं अणसणाए छेदेहिति स० छे० २ आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिति। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती भविस्सति।
[१३ प्र.] तदनन्तर भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधित करते हुए भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा- भगवन् ! क्या ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर आगारवास से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ?
[१३ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं किन्तु यह ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक बहुत-से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासों से तथा यथोचित गृहीत तपःकर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन करेगा। फिर मासिक संलेखना द्वारा साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन कर, (आहार छोड़कर), आलोचना और प्रतिक्रमण कर तथा समाधि प्राप्त कर, काल के अवसर पर काल करके सौधर्मकल्प के अरुणाभ नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहाँ कितने ही देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। ऋषिभद्रपुत्र-देव की भी चार पल्योपम की स्थिति होगी।
१४. से णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं जाव कहिं उववज्जिहिति ?
गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति।
[१४ प्र.] भगवन् ! वह ऋषिभद्रपुत्र-देव उस देवलोक से आयुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय करके यावत् कहाँ उत्पन्न होगा?
[१४ उ.] गौतम ! वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !, यों कह कर भगवान् गौतम, यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
१५. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ आलभियाओ नगरीओ संखवणाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, प० २ बहिया जणवयविहारं विहरति।
[१५] पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान् महावीर भी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने लगे।
विवेचन-ऋषिभद्रपुत्र के विषय में भविष्यकथन—प्रस्तुत तीन सूत्रों (१३ से १५ तक) में भगवान् महावीर द्वारा ऋषिभद्रपुत्र के भविष्य के सम्बन्ध में प्रतिपादित तथ्य का निरूपण किया है। भगवान् ने दो तथ्यों की ओर इंगित किया है—(१) ऋषिभद्रपुत्र महाव्रती श्रमण न बन कर श्रमणोपासकव्रतों का पालन करेगा और अन्त में संलेखना-अनशन पूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके प्रथम देवलोक में देव बनेगा, (२) फिर वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५५७