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ग्यारहवाँ शतंक : उद्देशक-११ ५९ में भगवान् महावीर ने सुदर्शन के पूर्वभव की कथा का उपसंहार करते हुए बताया है कि महाबल का जीव ही तू सुदर्शन है, जो दस सागरोपम की स्थिति का क्षय तथा अपचय होने पर वाणिज्यग्राम में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ है। अन्त में, सुदर्शन श्रमणोपासक के वर्तमान धर्ममय जीवन की प्रशंसा की है। यह प्रस्तुत उद्देशक के सू० १९-२ का निगमन है।'
६०. तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं, सोहणेणं परिणामेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं, तदावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुव्वजातीसरणे समुप्पन्ने, एतमटुं सम्म अभिसमेति।
[६०] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर से यह बात (धर्मफल-सूचक) सुनकर और हृदय में धारण कर सुदर्शन श्रमणोपासक (श्रेष्ठी) को शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संज्ञापूर्व जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे (भगवान् द्वारा कहे गए) इस अर्थ (अपने पूर्वभव की बात) को सम्यक् रूप में जानने लगा।
६१. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भयवया महावीरेणं संभारियपुव्वभवे दुगुणाणीयसड्डसंवेगे आणंदंसुपुण्णनयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, आ० क० वंदति नमंसति, वं० २ एवं वयासी—एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कट्ट उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमति सेसं जहा उसभदत्तस्स (स० ९ उ० ३३ सू० १६) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, नवरं चोद्दस पुव्वाइं अहिज्जति, बहुपडिपुण्णाणं दुवालस वासाइं सामण्णपरियागं पाउणति। सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०।
॥एक्कारसमे सए एक्कारसमो उद्देसो समत्तो॥ [६१] (जातिस्मरणज्ञान होने पर) श्रमण भगवान् महावीर द्वारा पूर्वभव का स्मरण करा देने से सुदर्शन श्रेष्ठी के हृदय में दुगुनी श्रद्धा और संवेग उत्पन्न हुए। उसके नेत्र आनन्दाश्रुओं से परिपूर्ण हो गए। तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा एवं वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोलाभगवन् ! यावत् आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है। इस प्रकार कहकर सुदर्शन सेठ उत्तरपूर्व दिशा में गया, इत्यादि अवशिष्ट सारा वर्णन (श. ९, उ. ३३, सू. १६ में वर्णित) ऋषभदत्त की तरह जानना चाहिए, यावत् सुदर्शन श्रेष्ठी ने प्रव्रज्या अंगीकार की। विशेष यह है कि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, पूरे बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन किया; यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५५२