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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणंदस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता तत्थ णं महब्बलस्स वि देवस्स दस सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता।
[५८] दीक्षाग्रहण के पश्चात् महाबल अनगार ने धर्मघोष अनगार के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया तथा उपवास (चतुर्थभक्त), बेला (छट्ठ), तेला (अट्ठम) आदि बहुत से विचित्र तपःकर्मों से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया और अन्त में मासिक संलेखना से साठ भक्त अनशन द्वारा छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्वक काल के अवसर पर काल करके ऊर्ध्वलोक में चन्द्र और सूर्य से भी ऊपर बहुत दूर, अम्बड़ के समान यावत् ब्रह्मलोककल्प में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। तदनुसार महाबलदेव की भी दस सागरोपम की स्थिति कही गई है।
विवेचन—दीक्षाग्रहण से समाधिमरण एवं ब्रह्मलोककल्प में उत्पत्ति—प्रस्तुत ५८ वें सूत्र में महाबल अनगार के जीवन का संकेत किया गया है। दीक्षाग्रहण के बाद चौदह पूर्वो का अध्ययन, विविध तपश्चर्या से कर्मक्षय, अन्त में यहाँ से मासिक संलेखना, तथा अनशन करके समाधिपूर्वक मरण और ब्रह्मदेवलोक की प्राप्ति, यह क्रम अनगार धर्म की आराधना के उज्ज्वल भविष्य को सूचित करता है।' पूर्वभव का रहस्य खोलकर पल्योपमादि के क्षय-उपचय की सिद्धि
५९. से णं तुमं सुदंसणा ! बंभलोए कप्पे दस सागरोवमाइं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्ता तओ चेव देवलोगाओ आउक्खएणं ठितिक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेट्ठिकुलंसि पुमत्ताए पच्चायाए। तए णं तुमे सुदंसणा ! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णयपरिणयमेत्तेणं जोव्वणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपण्णत्ते धम्मे निसंत्ते, से वि य धम्मे इच्छिए पंडिच्छिए अभिरुइते, तं सुठु णं तुमं सुदंसणा ! इदाणिं पि करेसि। से तेणटेणं सुदंसणा ! एवं वुच्चति अत्थि णं एतेसिं पलिओवमसागरोवमाणं खए ति वा, अवचए ति वा।'
[५९] हे सुदर्शन ! वही महाबल का जीव तुम (सुदर्शन) हो। तुम वहाँ ब्रह्मलोक कल्प में दस सागरोपम तक दिव्य भोगों को भोगते हुए रह करके, वहाँ दस सागरोपम की स्थिति पूर्ण करके, वहाँ के आयुष्य का, स्थिति का और भव का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर सीधे इस भरतक्षेत्र में वाणिज्यग्राम-नगर में, श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप में उत्पन्न हुए हो।
तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने तथारूप स्थविरों से केवलि-प्ररूपित धर्म सुना। वह धर्म तुम्हें इच्छित प्रतीच्छित (स्वीकृत) और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो।
इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता है।
विवेचन—सागरोपम की स्थिति का क्षयापचय और पूर्वभव का रहस्योद्घाटन–प्रस्तुत सूत्र १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५५३