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ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक - ११
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पुष्प धारण करने वाली (मालिन), आठ पानी भरने वाली, आठ बलि करने वाली, आठ शय्या बिछाने वाली, आठ आभ्यन्तर और बाह्य प्रतिहारियाँ, आठ माला बनाने वाली और आठ-आठ आटा आदि पीसने वाली दासियाँ दीं। इसके अतिरिक्त बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र एवं विपुल धन, कनक, यावत् सारभूत द्रव्य दिया । जो सात कुल-वंशों (पीढ़ियों) तक इच्छापूर्वक दान देने, उपभोग करने और बांटने के लिए पर्याप्त था ।
५१. तए णं से महब्बले कुमारे एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयति, एगमेगं सुवण्णकोडिं दलयति, एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलयति, एवं तं चेव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं वा सुबहुं हिरण्णं वा जाव परियाभाएउं ।
[५१] इसी प्रकार महाबल कुमार ने भी प्रत्येक भार्या (पत्नी) को एक-एक हिरण्यकोटी, एक-एक स्वर्णकोटी, एक-एक उत्तम मुकुट, इत्यादि पूर्वोक्त सभी वस्तुएँ दी यावत् सभी को एक-एक पेषणकारी (पीसने वाली) दासी दी तथा बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण आदि दिया, जो यावत् विभाजन करने के लिए पर्याप्त था । ५२ तए णं से महब्बले कुमारे उप्पिं पासायवरगए जहा जमाली (स० ९उ० ३३ सु० २२ ) जाव
विहरति ।
[५२] तत्पश्चात् वह महाबल कुमार (श. ९ उ. ३३, सू. २२ में कथित ) जमालि कुमार के वर्णन के अनुसार उन्नत श्रेष्ठ प्रासाद में अपूर्व (इन्द्रियसुख) भोग भोगता हुआ जीवनयापन करने लगा।
विवेचन — आठ नववधुओं को बल राजा तथा महाबल कुमार की ओर से प्रीतिदान—प्रस्तुत दो सूत्रों— (५१-५२) में ८ नववधुओं को बल राजा तथा महाबल कुमार की ओर से दिए गये प्रचुर प्रीतिदान का वर्णन है । ५२ वें सूत्र में महाबल कुमार का अपने प्रासाद में सुखभोगपूर्वक निवास का वर्णन है।
कठिन शब्दों का अर्थ — कडगजोए — कड़ों की जोड़ी। किंकरे—अनुचर । सिरिघरपडिरूवएश्रीघर— भण्डार के समान । भीसियाओ — आसनविशेष । वण्णगपेसीओ — सुगन्धित चूर्ण (पाउडर) बनाने वाली । पसाहियाओ — प्रसाधन (शृंगार) करने वाली । तेल्लसमुग्गे — तेल के डिब्बे । दवकारीओ - परिहास करने वाली ।
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धर्मघोष अनगार का पदार्पण, परिषद् द्वारा पर्युपासना
५३. तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे जातिसंपन्ने वण्णओ जहा केसिसामिस्स जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धि संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणगामं दूतिज्जमाणे जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सहासंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवा० २ अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हति, ओ० २ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विरहति ।
[५३] उस काल और उस समय में तेरहवें तीर्थंकर अर्हन्त विमलनाथ के प्रपौत्रक (प्रशिष्य
१. वियाहपण्णत्ति सुत्तं भा. २, पृ. ५५० -५११
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५४७-५४८